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मूलाचार प्रदीप ]
( १०४ )
[ तृतीय श्रधिकार
अर्थ- जो मुनि सुगंधको राग पूर्वक ग्रहण करते हैं और दुर्गंध को द्व ेषपूर्वक ग्रहण करते हैं उनका होता है और पाप से दुर्गतियों में महा दुःख प्राप्त होते हैं ।॥६४३॥
प्रयत्नपूर्वक उक्त पदार्थों में रागद्वेष का त्याग -- विवित्वेति पचार्थज्ञाः प्राप्य गंध शुभाशुभौ । श्वचिवहां विनायत्ता प्रागद्व ेषी श्यजन्तु भोः ।। अर्थ - यही समझकर पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले मुनियों को बिना इच्छा के प्राप्त हुई सुगंध और दुर्गंध को सूंघकर कभी रागद्व ेष नही करना चाहिये । प्रयत्नपूर्वक रागद्वेष का त्याग कर देना चाहिये ।। ६४४ । ।
कर्मरूपो शत्रुका नाश करने के लिये घ्राणेन्द्रिय का निरोध
राम षकर निसर्गचपलं घ्राणेन्द्रियं पापदं वंशग्येण निरुध्य धर्मजनकं रागादिभाशंकरम् । स्वर्मोक्षेकनिबंधनं शुभरामं कर्मारि विध्वंसकं कुर्योध्वं शिवशर्मणेप्यनुदिनं स्वमापरोधं बुधाः || अर्थ- बुद्धिमान मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने वैराग्य से राग द्वेष को उत्पन्न करनेवाले और स्वभाव से चपल और पाप बढ़ाने वाले ऐसे प्राणेन्द्रिय का निरोध करना चाहिये, तथा धर्मको प्रगट करनेवाले, रागद ेष को नाश करनेवाले स्वर्ण मोक्ष का कारण अत्यन्त शुभ और कर्मरूपी शत्रुको नाश करनेवाले ऐसा धारण इन्द्र का निरोध प्रतिदिन करते रहना चाहिये ||६४५ ||
जिह्वा इंद्रिय निरोध का स्वरूप
अस्राविचतुराहारे रसे तित्तादि षद्विषे । मनोशे प्रासुके लब्धे सति जिह्वासुखप्रये ॥ ६४६ ॥ या निराक्रियते कांक्षा गुठिश्च निजितेन्द्रियः । भ्रात्मध्यान सुषःतृप्ते जिह्वारोधः सकथ्यते ।। अर्थ - जो मुनि आत्मध्यान रूपी ममृत से तृप्त हो रहे हैं और इन्द्रियों को जीतने वाले हैं ऐसे मुनिराज खट्टे मीठे यदि यहाँ रसों से परिपूर्ण जिह्वा इन्द्रिय को सुख देनेवाले पन्त मनोज़ और प्रासुक अशाबिक चारों प्रकार का प्राहार प्राप्त होने पर जो अपनी प्राकांक्षा रोक लेते हैं उसमें गूढता धारण नहीं करते उसको जिह्वा का निरोध कहते हैं । ६४६-६४७ ।।
चारों प्रकार के आहार में राग का अभाव -
सनं पानकं खायं स्वार्थ जिह्वा सुखप्रदम् । शुद्ध चात्र क्वचित्प्राप्य रागः कार्यो न संयतेः ॥ अर्थ - जिह्वा इन्द्रिय को सुख देनेवाला अन पान खाद्य स्वाद्य आदि चारों