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मूलाचार प्रदीप ]
(१०६)
[ तृतीय अधिकार __ अर्थ-इसप्रकार बहुत से स्पर्श सुख देनेवाले हैं और बहुत से स्पर्श दु ख देने वाले हैं उनको पाकर मुनियों को रागद्वेष कभी नहीं करने चाहिये ॥६७१॥
पदार्थों में राग-द्वेष छोड़ देने से कर्मों का बंध नहीं होतारागद्वेषपरित्यागा तेषां संवर निर्जरे । स्पर्शषु सरस्वपीहाहो न बंषः कर्मणां क्वचित् । ६७२॥
अर्थ-रागढ'षका परित्याग करने से स्पर्श होते हुए भी मुनियों के कर्मों का बंध कभी नहीं होता किंतु उनके कर्मों का संघर और निर्जरा हो होती है ।।६७२।।
स्पर्श-जन्य प्रानन्द अनुभव करने में दुर्गति का बंध होता हैस्पशषु तेषु ये मूढा र'गद्वषो वितन्वते । तेषां पापानवस्तस्माददुर्गतौ भ्रमणं घिरम् ।।६७३॥
अर्थ-जो मूर्ख पुरुष उन स्पर्शों में रागद्वेष करते हैं उनके महा पाप का प्रास्रव होता है और उस पापासवसे वे चिरकाल तक दुर्मतियों में परिभ्रमण करते रहते हैं ॥६७३॥
___ इसमें रागद्वेष नहीं करना चाहिए-- विज्ञाति न कर्तव्यौ रागद्वषो सुसंयतः । सर्वेषु स्पर्शमेवेषु सुख दुःखावि कारिषु । ६७४।।
अर्थ --यही समझकर श्रेष्ठ मुनियों को सुख वा दुःख देनेवाले अनेक प्रकारके स्पों में कभी राग वा 'ष नहीं करना चाहिये ।।६७४॥
____ इस स्पर्शनेन्द्रिय, कार्मेंद्रिय को जीतना परमावश्यक हैविश्वामिष्टकर भवारिजनक कामेन्द्रियस्पर्शनं जिस्वारमाविभपरसीव कठिन: शय्यासने दुष्करः । स्वोक्षककरं सुसौख्यजलधि कर्माद्विवच परं कृत्स्नाक्षारिवशीकर प्रकुरत स्पक्षिरोधं बुषाः ।।
अर्थ-यह कामेन्द्रिय वा स्पर्शनेन्द्रिय समस्त अनिष्टों को करनेवाली है और संसार रूप शत्रुको उत्पन्न करनेवाली है। इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को पत्थर शिला आदि कठिन वा पुष्कर शय्या आसन आदि के द्वारा इस कामेन्द्रिय वा स्पर्शनेन्द्रिय को जीतना चाहिये तथा स्वर्ग मोक्षको देनेवाला, अनंत सुखका समुद्र, कर्मरूपी पर्वतको चूर करने के लिये वज्रके समान और समस्त इंद्रिय रूपी शत्रुओं को वश करनेवाला ऐसा स्पर्शन इंद्रिय का निरोध अवश्य करना चाहिये ।।६७५॥
पांचों इन्द्रियों में स्पर्शन और रसना इन्द्रिय को जीतना ही सबसे कठिन हैयेथा मध्ये जन यो रसस्पर्शनायो । बौहि कामेन्द्रियो नणा महानर्थविपायिनी ॥६७६॥