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तृतीयोधिकारः ।
मंगलाचरण (तृतीय अध्याय का )
निजिताफलातच जिनेन्द्रान् सिद्धिमाश्रितान्। हतपंचाक्षमासंगान् साधुसिंहान् स्तुवेखिलान् ।। अर्थ- जिन्होंने इन्द्रियों को जीतने का केवलज्ञानरूपी फल प्राप्त कर लिया है ऐसे जिनेन्द्रदेव की मैं स्तुति करता हूं तथा जिन्होंने आत्म सिद्धि प्राप्त कर ली है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की स्तुति करता हूं और पांचों इन्द्रियों रूपी हाथियों को मारने के लिये सिंह के समान समस्त साधुओं की मैं स्तुति करता हूं ||६०२ ||
मोक्ष सुख के लिये पांचों इन्द्रियों का निरोध
श्रथपंचाक्षरोधावीन् वक्ष्येमूलगुणान् परान् । विश्वद्धि गुरणमूलांश्च स्वान्येवां सिद्धिशर्मणे ॥ अर्थ- - अब आगे पांचों इन्द्रियों के निरोध करने रूप श्रेष्ठ मूलगुणों को कहते हैं ये गुण अपने श्रौर दूसरों के समस्त ऋद्धियों और गुणों के मूल हैं इसलिये मोक्ष सुख के लिये उनका निरूपण करता हूं ।। ६०३ ॥
पांचों इन्द्रियों के नाम
चक्षुः श्रोत्रेद्रियं प्राणं जिलास्पर्श इमानि मे । पंचेन्द्रियाणि जंतूनां सर्वानर्थं करायो । ६०४ ॥ अर्थ-चक्षुः श्रोत्र प्रारण जिल्ला और स्पर्शन ये पांच इन्द्रियां हैं और जीवों के समस्त अनर्थों को करनेवाली हैं ||६०४ ॥
पंचेन्द्रियों का निर्मल निरोध
श्रमषां गच्छतां स्वस्व विषयेषु निरोधनम् । विधीयतेत्र यत्पंचेन्द्रियरोधाहि ते मलाः || ६०५ ॥ अर्थ-ये इन्द्रियां अपने अपने विषय प्रहण करने के लिये जाती हैं उनको विषयों के प्रति न जाने देना उनका निरोध करना पंचेन्द्रियों का निर्मल निरोध कहलाता है ।। ६०५ ॥
चक्षु निरोध नामक गुण कर्मों के प्रसूव को रोकने वाला है
सचिताचित मिश्रारणां रूपाणां स्त्रोनरात्मनाम् । गौरादिवर्ण मेदानां विष्यसंस्थान धारिणाम् ॥ कलानुत्यादि युक्तानां रागार्थ बचा निरोक्षणम् । मुनीनां यत्स विशेयश्चक्षुरोषो निरानय ।