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मूलाचार प्रदीप]
[द्वितीय अधिकार रौद्रध्यान को बढ़ाने वाली निदनीय राज्य कथा भी कभी नहीं कहनी चाहिये ।।३३३॥
विकथाओं का निषेधचौरा बहुवेशामा, मिश्यावृष्टिकुलिगिमा। अर्थार्जनं विधीनां च, भाषणं वैरिणाम भुवि ।। मुबास्मृतिला, पुराना बयाकाः । पिता ने कम्पिा, न श्रोतव्या अधाकराः ।।
अर्थ-(१)ोरों को कथा (२) अनेक देशों की कथा (३) मिथ्याष्टि कुलिशियों की सेवा (४) बन उपार्जन के कारणों की कथा (५) शत्रुओं की कथा (A) मिकमा स्मृति शास्त्र कुशास्त्र, मिथ्या पुराणों को कथायें या पाप उत्पन्न करने बाली विकमायें कभी नहीं कहनी चाहिये; न कभी सुननी चाहिये ।।३३४-३३५॥ फिमत्र नहुनोतन, जिन केवलियोगिनाम् । मुक्त्वा धर्मक यानन्याः, कार्या जातु न संयतः।।
अर्थ--बहत कहने से क्या ? थोड़े में इतना समझ लेना चाहिये कि मुनियों को भगवान् अरहंत देव, केवली भगवान् और मुनियों की धर्म कथाओं को छोड़कर बाकी को कोई कथा नहीं कहनी चाहिये ॥३३६॥ विकथाचारिणामत्र, यतो नश्येष्ठ तं मति । महान् पापात्रषो नित्यं, मूर्खता च प्रजामते ।।
अर्थ-इसका भी कारण है कि विकथा कहने वालों की बुद्धि और श्रुतज्ञान सब नष्ट हो जाता है तथा प्रति समय तीन पाप कर्मों का आस्रव होता रहता है और मूर्खता भी प्रकट होती है ।।३३७॥ परनिंदा न कतव्या, स्वान्यदुःखविधायिनी । पृष्ठमांसोपमा जातु, वृथाधास्रवकारिणी ॥३३॥
अर्थ-मुनियों को पर-निदा भी कभी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि परनिंदा अपने को तथा दूसरोंको सबको दुःख देनेवाली है। व्यर्थ हो पापात्रच उत्पन्न करनेवाली है; और पीठ के मांस के समान ( कुबड़े के कुब्ज के समान ) दुख देने वाली हैं। ॥३३॥
कंसी वाणी कभी नहीं योलनी चाहियेजायेतात्र यथान्येषा, पोडावधश्च देहिनां । क्लेशायन्धौ पतेत्स्वात्मा, सागोवांच्या न योगिभिः ।।
अर्थ-मुनियों को कोई भी ऐसी वाणी नहीं बोलनी चाहिये जिससे कि अन्य प्राणियों को पीड़ा या वध होता हो अथवा क्लेश होता हो अथवा अपनी आत्मा क्लेश प्रावि के महासागर में पड़ती हो ऐसो वाणी कभी नहीं कहनी चाहिये ।।३३६ ।।