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मूलाचार प्रदीप ]
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[द्वितीय अधिकार अर्थ-जिस जलका रूप रस नहीं बदला है; किसी चूर्ण के मिलाने पर भी रूप, रस नहीं बदला है या गर्म करनेसे स्पर्श नहीं बदला है ऐसा जल जो अज्ञानी मुनि ग्रहण करता है उसके अनेक जीवोंकी हिंसा करनेवाला 'अपरिणत' नामका दोष उत्पन्न होता है ॥४५२॥
यही बात मूलाचार ग्रंथमें लिखी है यथा- (तिल तंडल उसरमोदय, चरणोदय तुसोवयं अविण्दुत्थं । अगं तहाविहं बा, अपरिणदं रणेव गेहिजो) अर्थात तिल या चावलों का धोया जल ठंडा हुअा गरम जल, चना तुष आदि का धोया जल जिसका वर्ण रस गंध न बदला हो, तथा हरड, बहेडा आदि के चूर्ण से जिसका वर्ण रस न बदला हो; ऐसा जल कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये ।
(२) लिप्त नामका दोषप्रामपिष्ठेन वर्गेना. पयवशाकन चाम्बना ! स्वनिकाहारसालादि, द्रव्यैराछ करेण च ।।४५३।। भाजनेनात्र वेयं, यवन्नादि यतये जनः । लिप्सदोष स एव स्यात सूक्ष्मजंत्यादि घातकः ।।४५४।।
___ अर्थ-(१) कच्चे चावलोंके चूर्णसे (२) बिना पके शाकसे (३) अप्रासुफ जलसे (४) खड़ी सेलखड़ी हरताल प्रावि द्रध्योंसे स्पर्श किये हुये, लगे हुये द्रव्यको दान में देना अथवा गीले हाथ या गीले बर्तन से आहार देना 'लिप्त नामका दोष' कहलाता है । ऐसे आहार में सूक्ष्म जीवों को हिंसा होती है ।।४५३-४५४।।
(१०) परियजन दोष.दीयमानं यमाहार, घृतततनोदकादिभिः । बरं परिगसन्तं सच्छिद्रपाणिपुटेन च ॥४५५।। लवंत यदि गलाति, संयतोसंयमप्रदः । तदा स कथ्यते दोष , 'परित्यजन' संशकः ।।४५६।।
अर्थ-जो दाता घी, दूध, छाछ या जलका आहार देता हो और वह अपने हाथों से अधिक रूपमें टपकता हो ऐसे असंयम उत्पन्न करनेवाले आहार को जो मुनि ग्रहण करता है उसके परित्पजन' नामका दोष लगता है ॥४५५-४५६।।
१० अशन दोषों का परिणामएनाहया दोषा, हिसारंभाषकारिणः । सर्वथा मुनिभिया, वशंव यत्नतोऽनिशम् ॥४५७।।
अर्थ-ये दश अशन नामके दोष कहलाते हैं तथा हिसा, श्रारंभ और पापके कारण कहलाते हैं । इसलिये मुनियों को यत्न पूर्वक इनका सर्वथा सदा के लिये न्याग कर देना चाहिये ।।४५७।।