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मूलाचार प्रदीप
[ द्वितीय अधिकार कर्म रूप परिणत हो जाय अर्थात् उसे अपने लिये बनाया हुआ समझले तो फिर वह मुनि सदा कर्म बंध ही करता रहता है ॥४६॥ मुनि गंवेधमारणो यः शुद्धाहारमतंद्रितः । शुद्ध एष स योग्याचं सत्यध: कर्मणि क्वचित् ।।
अर्थ-यदि वह मुनि मन-वचन-कायसे शुद्ध होकर तथा आलस को छोड़कर शुद्ध हारको रक्षा है सो फिर पाहीं पः सा कर्म होनेपर भी वह साधु शुद्ध हो कहा जाता है । शुद्ध आहार को ढने से अधःकर्म से उत्पन्न हुआ अन्न भी उस साधु को कर्म बंध करनेवाला नहीं हो सकता ।।४६६॥
भोजन वेला का कालविज्ञेयोशन कालोन संत्यज्य घटकात्रयम् । मध्ये प योगिनां भानदयास्तमन कालयोः ।।५००।।
अर्थ-आगे भोजन का समय बतलासे हैं । सूर्योदय से तीन घड़ी बाद और सूर्य के अस्त होने के तीन घड़ी पहले तक प्राहार का समय है इसमें भी मध्य वा दोपहर के समय की सामायिक काल को कम से कम तीन घड़ी छोड़ देनी चाहिये। ॥५०॥ तस्यैवाशन फालस्प मध्ये प्रोत्कृष्ठतो जिनः । भिक्षा कासो मतो योग्यो मुहकप्रमाणक: ॥
अर्थ-बाकी का जो आहार का समय है उसमें आहार का समय भगवान जिनेन्द्रदेव ने एक मुहूर्त उत्कृष्ट काल बतलाया है ।। ५०१॥ योगीना हि मुहूर्त प्रमाणो मध्यम एव च । जघन्यं त्रिमुहर्त प्रमो भिक्षा काल एव हि ॥५०२।।
___ अर्थ---दो मुहर्त मध्यम काल बतलाया है और तीन मुहर्त जघन्य काल बसलाया है। [यह काल को मर्यादा सिद्ध भक्तिसे लेकर भोजन के अन्त तक समझनी चाहिये] ।।५०२॥ घटिकाद्वयहोने मध्याह्नकाले प्रयत्नतः । स्वाध्याय मपि संहृत्य कृत्वा श्री देव बन्दनाम् ।।५०३ ।
अर्थ-जब मध्याह्न काल में (सामायिक के समय में) दो घड़ी बाकी रह जाय तब प्रयत्न पूर्वक स्वाध्याय को समाप्त कर देना चाहिये और फिर देव वन्दना करना चाहिये ॥५०३।।
भिक्षा को निकालने की विधिभिक्षा देला परिक्षाय कुरिका विभिटके यतिः । गृहीत्या काय संस्थिस्य निर्याति स्वाश्रमानैः ।।