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मूलाचार प्रदोप]
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[ द्वितीय अधिकार जीवों के घात करने का पाप लगता है अतएव उनके अनेक उपवास और आतापन आदि योग सब व्यर्थ हो जाते हैं ॥५६॥
मुगियों को शुद्ध बारनेवाली पारा भिवा पुद्धिःयथात्र व्यवहाराच्या शुद्धिः सागारिणां परा। भिक्षा शुद्धि स्तथा सारा योगिनां शुद्धिकारिणी॥
अर्थ-जिस प्रकार गृहस्थों की उत्कृष्ट शुद्धि प्रवहार शुद्धि कहलाती है उसीप्रकार मुनियोंको शुद्धि करनेवाली सारभूत भिक्षा शुद्धि समझनी चाहिये ॥५७०।।
सदोष आहार का निषेधघरं प्रत्यह माहारं निरव तपस्विनाम् । न च पक्षोपवासादी सदोषं पारणं क्वचित् ।।५७१॥
अर्थ-मुनियों को निर्दोष पाहार प्रतिदिन कर लेना अच्छा परंतु पन्द्रह दिन वा महिने भरका उपवास करके पारणा के दिन सदोष आहार करना अच्छा नहीं ॥५७१॥
भिक्षाकी शुद्धि प्रयत्न पूर्वक प्रावधयकःविज्ञायेति प्रयरमेन भिक्षाशुद्धिः शिवकरा । गुणरत्नखनी नित्यं विधेया भव भीरभिः ।।५७२।।
अर्थ-यही समझकर संसारसे भयभीत रहनेवाले मुनियोंको गुणरूपी रस्नोंकी खानि और मोक्ष प्रदान करनेवाली भिक्षाकी शुद्धि प्रयत्न पूर्वक करनी चाहिये ।।५७२।।
एषणा शुद्धि को धारण करने का फलसकल चरणमूला दुःख बावाम्बु वृष्टि जिम मुनिगरा सेव्या स्वाक्ष फर्मारि शहनीम् । परम सुगुरण खानि स्थनमोक्ष ध्रुधात्री भजत परमयत्नावेषणा शुद्धिमार्याः ।।५७३।।
अर्थ-इसप्रकार यह एषरणा शुद्धि समस्त चारित्रकी मूलकारण है, दुःखरूपी दावानल अग्निके लिये पानी को वर्षा है, भगवान जिनेन्द्रदेव और समस्त मुनिगण इसकी सेवा करते हैं इसको पालन करते हैं, अपनी इन्द्रियां और कर्मरूपी शत्रुको नाश करने के लिये यह भिक्षा शुद्धि एक अमोघ शस्त्र है, सर्वोत्कृष्ट श्रेष्ठ गुणोंको खानि है
और स्वर्ग मोक्षरूपी वृक्षको बढ़ाने के लिये धाय के समान है। अतएव मुनियोंको परम प्रयत्न पूर्वक इस एषणा शुद्धिको धारण करना चाहिये ॥५७३॥
प्रादान निक्षेपण समिति का स्वरूप--- मानसंयमशौचोप करणानां प्रयत्नतः । यत्संस्तरावि वस्तूनां ग्रहण कियते बुधः ॥५७४।।