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मूलाचार प्रदीप ]
द्वितीय अधिकार (३) 'उदराग्निप्रशमन' वृत्ति का स्वरूपसमुत्थितं यथा वान्ह, भांडागारे भृते बरिणक् । रत्नाय : शमयेचलोध्र, पशुपादिवारिणा ।। तथोत्थितं क्षुधावन्हि, मुदरे शमयेथमो । सरसेलर भमतेन, दृगादि रत्न हेसवे ।।५२५।।
अर्थ-जिसप्रकार कोई वैश्य, रत्नाविकसे भरे हुये भंडागार में (भंडारे में) अग्नि के लग जानेपर तथा उसकी ज्वाला बढ़ जाने पर शीघ्र शुद्ध वा अशुद्ध पानी से उसे बुझा देता है; उसीप्रकार मुनिराज भी सम्यग्दर्शन प्रादि रत्नों की रक्षा करने के लिये अपने पेट में बढ़ी हुई क्षुधा रूपो बन्हिको सरस वा नीरस आहार लेकर, शोत्र ही बुझा देते हैं इसको 'उदराग्निप्रशमन' वृत्ति कहते हैं ।।५२४.५२५।।
(४) 'श्यभपुरण' इलि का स्वरूप यथा स्वरोहमध्यस्थ, गृही गर्त प्रपूरयेत् । येन केनोपनौतम, फतवारेण नान्यथा ॥५२६।। तोदरगलं श्वन', पूरत्नयमो क्वचित् । यादृक् तादृक् विधान्नेन, न च मिष्टाशनादिना ।।
अर्थ-जिस प्रकार कोई गृहस्थ, अपने घरके मध्यके गड्ढे को किसी भी कड़े कर्कटसे भर देता है, उसके लिये अच्छो मिट्टी की लजबीज नहीं करता; उसीप्रकार मुनिराज भी अपने पेट के गड्ढे को जैसा कुछ मिल गया उसी अनसे भर लेते हैं: उसको भरने के लिये मिष्ट भोजन की तलाश नहीं करते इसको 'श्वभ्रपूरण त्ति कहते हैं ।।५२६-५२७॥
(५) भामरी वृत्ति का स्वरूपभ्रमरोत्र यथा पयाद, मधं गृहाति तद्भवम् । प्राणेन न मनाक तस्य, बाधां जनयति स्फुटं ॥ तथा हरित चाहार, दस दातृजनैतिः । न मनाक पीडयेद् दातृन्, जास्वलाभाल्पलाभतः ॥२६॥
अर्थ-जिसप्रकार भ्रमर, अपनी नासिकाके द्वारा कमल से गंधको प्रहण कर लेता है और उस कमल को किचित् मान भी बाधा नहीं देता; उसीप्रकार मुनिराज भी बाता के द्वारा दिये हुये आहार को ग्रहण कर लेते हैं परंतु चाहे उन्हें पाहार मिले वा न मिले; अथवा थोड़ा हो मिले तो भी वे मुनिराज किसी भी वाता को रंचमात्र भो पीड़ा नहीं देते हैं । इसको 'भ्रामरी वृत्ति' कहते हैं ॥५२५-५२६॥
५.प्रकार पूर्वक आहार को ग्रहण करना तथा ३२ अन्तरायों को छोड़ना-- इति पंचविधाहार, भजन योगी क्वचित् स्यजेत् । द्वात्रिशवंतरायाणा मन्सरायागते सति ।।
श्रर्य-इसप्रकार वे मुनिराज, पांच प्रकारके आहार को ग्रहण करते हैं यदि