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मुलाचार प्रदीप]
[द्वितीय अधिकार उस समय बत्तीस अंतरायों में से कोई अंतराय आ जाय तो उस आहार को भी छोड़ देते हैं ॥५३०॥
पत्तीस अन्तरायों के नामशाकोऽमेध्यं तथा छथि, रोधन कधिरं ततः । अश्रुपाताभिघो जान्वयः परामर्शसंज्ञकः ।।५३१॥ अंतरायस्ततो जान, परिष्यतिकमावयः। नाभ्यघो निर्गमनाख्यः, स्वप्रत्याख्यान सेवनात् ।।५३२।। तथा जोववत्रः काकादि, पिंडहरणाभिधः। पिंडस्य पतनं हस्तात् पाणी जन्तुवधस्ततः ॥५३३।। मांसावि दर्शनं चोप, सर्गः पादयान्तरे । व्रजेत पंचेन्द्रियो जीवः, सपासो भाजनस्य च ॥५३४।। उच्चारः प्रस्रवणं चा, भोज्यगेहप्रयेशनम् । मू या पतनं चोपयेशनं दष्टनामकः ॥५३५।। मूमिसंस्पर्शनामाथ, निष्ठीवनं समाह्वयः । उदरासंयतस्यव, कमिनिर्गमनं ततः ॥५३६।। अदत्तं ग्रहणं शस्त्र, प्रहारो ग्राम बाहकः । पायेन ग्रहणं किचित्त, वस्तुभूमेः करेण च ।।५६७॥ अंतराया इमे ज्ञेया, द्वात्रिंशसंख्यका मुनेः । मलाभहेतबोन्नादौ, वक्ष्यमाणाः पृथक-पृथक् ।।५३८।।
अर्थ-निम्नलिखित ३२ अंतराय हैं-(१) फाक (२) अमेध्य (३) दि (४) रोधन (५) रुधिर (६) अश्रुपात (७) जान्वधः परामर्श (4) जानपरि व्यतिक्रम (६) नाभ्यधो निर्गमन (१०) प्रत्याख्यात सेवन (११) जोषवध (१२) काकादि पिडहरण (१३) हस्तात् पिडपतन (१४) पारिगपात्रे जंतुवध (१५) मांसदर्शन (१६) उपसर्ग (१७) पावान्तर पं.द्रिय जीवगमन (१८) भाजनसंपात (१६) उच्चार (२०) प्रस्रवरण (२१) अभोज्य गृह प्रवेश (२२) मूपतन (२३) उपवेशन (२४) दंष्ट (२५) भूमिस्पर्श (२६) निष्ठीवन (२७) उदर-कृमि-निर्गमन (२८) अदत्तग्रहण (२६) शस्त्रप्रहार (३०) ग्रामदाह (३१) पादेन ग्रहण (३२) हस्तेन ग्रहण । इसप्रकार मुनियोंके उपरिलिखित ३२ अंतराय हैं और आहार के लोभसे बाधा डालने वाले हैं। आगे इन सबका स्वरूप अलग २ लिखते हैं ।।५३१-५३८।।
(१) काक नामक अन्नराय--- स्थितस्य गच्छतो चो, परि व्युत्सर्ग प्रकुर्वते । काकाधा पक्षिणोऽयं स, काकान्तरायनामकः ।।
अर्थ-मुनिराज चाहे माहार के लिये चल रहे हों अथवा बठे हों उस समय यदि कोई कौआ या बाज आदि पक्षी उनके ऊपर बोट कर दे, तो उन मुनिके (१) 'काक नामका' अंतराय होता है ।।५३६।।
(२) अमेध्य व (३) छदि अन्तरायगच्छन् मार्गे स्वपाधना, मेध्यं यदि यतिः स्पृरोत् । जायले वमनं स्वस्थ, योगिनोऽधविपास ।