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मूलाचार प्रदीप]
[द्वितीय अधिकार की वृद्धि के लिये अथवा आतापन आदि योग धारण करने के लिये अथवा धर्मोपदेश वेने के लिए कभी २ वेला तेला करने के बाद पारणा के दिन प्राहार ग्रहण करते हैं ।।४८५-४८६।।
• मुनिराज कैसे शुद्ध भोजन को करते हैं ? नवकोटि विशुद्ध, चाशनं संयोजनातिगम् । दोषस्त्यक्तं, द्विचत्वारिंशत् प्रमः प्रासुकं शुभम् ।। प्रमाणसहित दत्तं विधिना पहनायकः । विगतांगारघूमे च, सुषटकारणसंयुतम् ॥४८॥
अर्थ-ये मुनिराज, तपश्चरण पालन करने के लिए, प्राणियों की रक्षा करने के लिए, मोक्ष प्राप्त करने और कमों का नाश करने के लिए आहार ग्रहण करते हैं तथा वह प्राहार भी (2) मन, बचन काय और कृत, कारित, अमुमोदनाकी विशुद्धता पूर्वक होना चाहिए (२) संयोजन दोषसे रहित होना चाहिए (३) ४२ दोषोंसे रहित होना चाहिए (४) प्रासुक और शुभ होना चाहिए (५) प्रमाण सहित होना चाहिए अर्थात् (६) प्रमाण से अधिक नहीं होना चाहिए (७) घर के स्वामी के द्वारा विधि पूर्वक देना चाहिए (८) अंगार और धूम दोषोंसे रहित होना चाहिये (६) श्रेष्ठ ग्रहों कारणों से सहित होना चाहिए और १४ मलोंसे रहित होना चाहिए। ऐसे आहार को वे मुनिराज पारणा के दिन ग्रहण करते हैं ॥४८७-४३८।।
ये १४ मल आहार में वर्जनीय हैंतपसे प्राणरक्षाम, मोक्षाय पारणाहनि । क्वचिद् गृह्णातिमुक्त्यर्थ चतुर्दशमलोजिझतं ।।४८६। नखरोममलोजन्तु, रस्थि कुलः करपरततः। पूर्य व रुधिर धर्म, मसिं बीजं फल सथा ।।४६।। को मूल ममी क्षेया, मलाश्चतुर्दशाशुभाः। प्राहारेऽन्न मुमुक्षूणा, परोषह विधायिनः ।।४६१!!
___अर्थ-नख, रोम अर्थात् बाल, जंतु अर्थात् जीव रहित शरीर, हड्डी, कुंड अर्थात् चावल आदि के भीतर के सूक्ष्म अवयव, कण अर्थात् जो गेहूं प्रादि के बाहरी अवयव, पीय, रुधिर, चर्म, मांस, बीज, फल, कंब, मूल घे १४ अशुभ मल कहलाते हैं ये १४ प्रकार के मल, मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनियों के आहार में परिपह उत्पन्न करनेवाले हैं ।।४८६-४६१॥
मलों के विशेष भेदएषां मध्येऽत्र केचिरस्यु, मला महान्त एष च । केचिन्स्वल्पमला केचित्, मध्यमादोषभेवतः ।।
अर्थ-इनमें से कितने ही मल बहुत बड़े हैं, कितने ही छोटे मन कहलाते हैं