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मूलादार प्रदीप]
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[द्वितीय अधिकार और कितने ही मध्यम कहलाते हैं । दोषके भेदसे इनके अनेक भेद हो जाते हैं ॥४६२॥
महामल के भेदवर्मास्थि हभिर मांस, नखः पूमिमेमलाः। महारतोऽशन स्यागेऽपि, प्रायश्चित्त विधायिनः ।।
अर्थ-(१) चमड़ा (२) हड्डी (३) रुधिर (४) मांस (५) नख और (६) पीत्र ये 'महामल' कहलाते हैं। आहार में इनके निकल आने पर आहार का भी त्याग करना पड़ता है और प्रायश्किा भी लेना पड़ता है .:४६३॥
क्रिस दोष में प्राहार का सर्वथा त्यागद्वीन्द्रियावि वपुर्याला पाहार त्याग कारिणौ । कणः कुडः फलं वोज, कंदो भूल दलाममी । अल्पास्त्यजनयोग्याश्च, सुच्छदोष विधायिनः । यवि स्यक्तुं न शक्यन्ते, त्याज्यं तां शनं वृधः ।।
अर्थ-दो इंद्रिय, तेइंद्रिय प्रावि विकलत्रयों का शरीर और बाल के निकल आने पर, आहार का त्याग कर देना चाहिए तथा करण, कुंड, फल, बीज, कंद, मूल, दल ये 'अल्पमल' कहलाते हैं इनको आहार में से निकाल कर अलग कर देना चाहिए क्योंकि ये बहुत थोड़ा दोष उत्पन्न करनेवाले हैं। यदि आहार में से ये अलग न हो सक तो फिर बुद्धिमानों को आहार का ही त्याग कर देना चाहिए ॥४६४.४६५॥
___ मुनि के लेने योग्य द्रव्यप्राणिनः प्रगता यस्याद् द्रव्यात्तद्ग्रव्यमुत्तमम् । शुद्ध' च प्रासुकं योग्यं मुनीनां कथितं जिनः ।।
अर्थ--जिस ख्यमें कोई प्राणी न हो उसको उत्तम द्रव्य कहते हैं ऐसा उत्तम शुद्ध और प्रासुक वय ही भगवान जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के लिये योग्य वष्य कहा है । ||४६६॥
मुनि के न लेने योग्य द्रव्यतम्य मवि वात्मार्थ कृतं वा कारित क्वचित् । योगेरनुमतं निमशुद्ध नोषितं सताम् ।।
अर्थ-यदि ऐसा द्रव्य अपने लिये बनाया गया हो वा बनवाया गया हो अथवा मन-वचन-कायसे उसकी अनुमोदना की गई हो तो वह द्रव्य निध और अशुद्ध कहलाता है । सज्जनों को ऐसा द्रव्य कभी नहीं लेना चाहिये ।।४६७॥ सत्यपि प्रासुके द्रव्ये योबायः कर्मणः यतिः । योगैः परिणतः प्रोक्तः स कर्मबंधकोनिशम् ॥४६८।।
अर्थ-यदि यह द्रव्य प्रासुक हो और वह मुनि अपने मन-वचन-कायसे अधः