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मूलाचार प्रदीप |
[द्वितीय अधिकार अर्थ-तदनंतर भिक्षा का समय जानकर मुनियों को पीछी कमंडलु लेकर शरीर को स्थिर रखने के लिये अर्थात् आहारके लिये अपने आश्रमसे धीरे २ निकलना चाहिये ।।५०४॥ पुप्तिश्च समिती: सर्वा व्रत मूल गुणान् परान् । रसंश्चरति मागें स मनो वाक्काम कर्मभिः ।।
अर्थ-समस्त गुप्ति, समिति, व्रत और मूलगुणों को मन-वचन-कायके द्वारा अच्छी तरह रक्षा करते हुए उन मुनियों को मार्ग में चलना चाहिये ।।५०५॥ भावयस्त्रिकसंवेगं देहभोग भवाविषु । जिनाज्ञा पालयन् सम्यगनवस्या निजेच्छया ॥५०६।। मिथ्यात्वाराधनामारमनाशं दूरात्परित्यजन् । न कुवाचमनाक् यत्नात्सुसंयमविराधनाम् ।।५०७।। नाति दुतं न मंदं न विलंवित पपि प्रजेत् । न सिष्ठकेनधित्साद्धं न कुर्याज्जल्पनं यमी 1.५०६॥
अर्थ- उस समय उन मुनियों को संसार शरीर और भागों से विरक्त होकर तीनों प्रकार का संवेग धारण करना चाहिये, भगवान जिनेन्द्र देव की आज्ञा को अच्छी तरह पालन करना चाहिये अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति का, मिथ्यात्व की आराधना का और प्रात्माके नाश होनेका, अकल्यारण होने का दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये तथा यन्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए संयम की विराधना किंचित मात्र भी नहीं करनी चाहिये । मार्ग में न धीरे चलना चाहिये न जल्दी चलना चाहिये ; न ठहरना चाहिये। न खड़े होना चाहिये और न किसी के साथ बातचीत करनी चाहिये । इसप्रकार अपनी इच्छानुसार चर्या करनी चाहिये ॥५०६-५०८।। इदं च धमिलो गैह मिदं हि निर्षनस्य भो । इति मातु न संकल्प हदि धत्ते जिसेन्द्रिय ॥५०॥
अर्थ-उन जितेन्द्रिय मुनियोंको "यह किसी धनीका घर है अथवा यह किसी निधन का घर है" ऐसा संकल्प अपने हृदयमें कभी नहीं करना चाहिये ॥५०६।।
पंक्ति भेद नहींगावस्या क्रमेणासो, प्रवियोछावकालमं । अन्ये भिक्षावरा याववाति सावदेव हि ।५१०।।
अर्थ-उन मुनियों को घरों को पंक्ति के अनुकूल क्रमसे ही श्रावकों के घर प्रवेश करना चाहिये और वहीं तक जाना चाहिये जहां तक अन्य साधारण भिक्षुक जाते हों ॥५१०॥
प्रतिग्रहण सम्बन्धी व्यवस्थाअप्रतिमाहतिस्तस्मानिर्गच्छेद्रुतमात्मवान् । विधिमा वा प्रतिवाहितस्तिष्ठेद् योग्यभूतले ॥