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मूलाचार प्रदीप ]
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लिये मैं इस आहार का ही त्याग करता हूं ॥४८० ॥
[ द्वितीय अधिकार
तपश्चरण की शुद्धि के लिये थाहार का त्याग -
बिना तपसा जातु न च कर्मक्षयः शुभम् । तस्मात्तयो विशुध्यर्थ, माहारं वर्जयाम्यहम् ॥ ४८१ ॥ अर्थ - इस संसार में बिना तपश्चरण के कमौका नाश कभी नहीं होता और तपश्चरण को विशुद्ध रखने के लिये में इस
न कल्याण हो होता है । अतएव अपने आहारका ही त्याग कर देता हूं ॥४८१ ॥
समाधिमरण में श्राहार त्याग की उपयोगिता -
संजातं विकलएवं च मेऽक्षाणां रुक् ज्वरादिभिः । अतः संन्यास संसिध्ये, त्यजाम्यशन मंजसा ॥ अर्थ- ज्वर आदि अनेक रोगों के उत्पन्न होने से मेरी इंद्रियां सम विकल हो गई हैं; अतएव समाधिमरण धारण करने के लिये मैं इस आहार का ही त्याग कर देता हूं ॥४८२ ॥
उपसंहार बाहार सम्बन्धी विषय का---
विज्ञायेति त्यजेदेते, कारणः षविषैर्मुनिः । श्राहारं सकलं युक्त्यै, यत्नात्नत्रयं भजेत् ।।४८६३ ।। अर्थ - इन ६ प्रकार के कारणों को समझकर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये सब तरह के आहार का त्याग कर देना चाहिये और यत्नपूर्वक रत्नत्रय का सेवन करना चाहिये ११४६३ ॥
मुनि निम्न कार्यों के लिये कभी आहार ग्रहण नहीं करें
बलायुर्वृद्धि सुस्वादु शरीरोपचमाय च । तेज: क्रांति सुखाद्यर्थ जातु भूषते न संयमी ॥ ४६४ ॥ अर्थ- संग्रमी मुनि बल और आयुकी वृद्धिके लिये, स्वाद चखने या शरीर की बृद्धिके लिये अथवा तेज, कांति और सुख बढ़ाने के लिए कभी श्राहार ग्रहण नहीं करें ॥। ४८४ ॥
वेला
तेला करने के बाद श्राहार क्यों
सिद्धति पाठसंसिध्ये, प्रशस्तध्यान हेतवे । पंषानां समयानां च पालना सुवृद्धये ॥। ४८५ ॥ प्रतापनादि योगाय धर्मोपदेशनाय च । भुक्तेऽशनं क्वचिद् योगी, षष्ठाष्टमाथि पारणे ॥ ४८६
अर्थ -- वे मुनिराज, सिद्धांत ग्रंथों के पठन-पाठन करने के लिये, प्रशस्त ध्यान धारण करने के लिये, पांचों प्रकार के संयमों का पालन करने के लिये अथवा संयमों