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मूलाचार प्रदीप]
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[द्वितीय अधिकार अर्थ-आत्मा के स्वरूप को जाननेवाले मुनियों को किसी (१) दुष्ट व्याधि के उत्पन्न हो जाने पर, (२) चारों प्रकार के उपसर्ग आ जाने पर (३) ब्रह्मचर्य को रक्षा और (४) इंद्रियों को शांत करने के लिये, (५) समस्त जीवों को दया पालन करने के लिये, (६) तपश्चरण पालन करने के लिये और समाधि मरण धारण करने के लिये, क्षुधा वेदना के होनेपर भी मन, वचन, कायसे आहार का त्याग कर देना चाहिये ।।४७५-४७६।।
कर्म नष्ट करने के लिये आहार का त्यागछुर्याधौ सति मे हानि, दश्यते संयमादिषु । प्रतो कर्मनाशाय, करोमि प्रवरं तपः ।।४७७।।
अर्थ--आहार त्याग करते समय मुनियों को विचार करना चाहिये कि इस दुष्ट व्याधि के होने से मेरे संयम में हानि दिखाई देती है। अतएव रोग उत्पन्न करने वाले कर्मको नाश करने के लिये मैं आहार का त्याग कर श्रेष्ठ तपश्चरण करता हूं। ॥४७७॥
मुक्ति के लिये माहार का भी त्यागजाते सत्युपसर्गेऽस्मिन्, प्राणनाशकरे कर्म । जीवितम्ममतोत्राह, त्मनाम्पन्न शिवाप्तये ॥४७१।।
अर्थ-यह उपसर्ग प्राणों का नाश करनेवाला है इसके होनेपर मेरा जीवन कभी नहीं टिक सकता अतएव मैं मोक्ष प्राप्त करने के लिये इस अन्न का ही त्याग करता हूं ॥४७६।।
अन्न के ग्रहण करने से मोक्ष में बाधा-- प्रयास्युस्कटताममात्, स्मरावीप्रिय शत्रवः । तस्मात्तेषां बशार्थ, बाहारं जहामि मुक्तये ।।४७६॥
अर्थ-अनके सेवन करने से कामदेव और इन्द्रियरूपी शत्रु अत्यन्त प्रबल हो जाते हैं अतएव उनको वश करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये मैं इस अन्न का ही त्याग करता हूँ ॥४७॥
अनेक जीवों की रक्षा के लिये प्राहार त्याग-- प्रयाहार प्रभुक्तेन, नियंते जंतुराशयः । ततस्तेषां च रसाय, भक्तं त्यजामि सिद्धये ॥४८०।।
अर्थ-माज पाहार के सेवन करने से अनेक जीवों का समूह मृत्यु को प्राप्त होता है असएव उन जीवों की रक्षा करने के लिये और सिद्ध अवस्था प्राप्त करने के