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मूलाचार प्रदीप]
[द्वितीय अधिकार निर्बलता की पूति हेतुबिनाहररं घडावश्यक, व्युत्सर्गान बलातिगः । नाहं धत्तुं समर्थोऽस्माद, भिक्षा नद्ध तवे श्रये ।।
अर्थ-मैं निर्मल हूं और बिना आहार के छहों आवश्यकों को तथा 'व्युत्सर्ग' को पालन नहीं कर सकता; अतएव आवश्यक पालन करने के लिये मैं आहार लेता हूं ॥४७०॥
दया पालन करने के लियेबयां कत्तुं न शक्तोऽहं, क्षुधाकरन्तीगिराशिषु । अतः संघमसिध्ययं गृह्णाम्यन्न न चान्यथा ।।
___ अर्थ- भूखसे पीड़ित हुआ मैं जीवों की दया पालन नहीं कर सकता अतएव संयम पालन करने के लिये ही मैं अन्न ग्रहण करता हूं अन्यथा नहीं ॥४७१।।
प्राणों की रक्षा के लियेन तिष्ठन्ति वश प्राणाः, अन्नादृतेय हेतवे। तस्मान्मे प्राणरक्षाये, सेवेन्न' पारणे क्वचित् ॥
अर्थ-बिना अन्नके मेरे प्राण ठहर नहीं सकते अतएव प्राणों की रक्षा करने के लिये मैं कभी २ पारणा के दिन आहार ग्रहण करता हूं ।।४७२॥
१० लक्षण धर्म पालन हेतुदशलाक्षणिकं धर्म, नाहमाचरितु क्षमः । अतो धर्माय गृह्णामि, शुद्धान्न नान्यहेतुना ।।४७३॥
__ अर्थ-बिना आहार के वश लाक्षणिक धर्मको पालन नहीं कर सकता अतएव धर्म पालन करने के लिये मैं शुद्ध अन्न ग्रहण करता हूं। मैं किसी अन्य हेतु से आहार नहीं लेता ॥४७३॥
प्रात्मा को जानने वाला अन्य निमित्त प्राहार नहीं लेता-- मत्वेति कारणैः षड्भि, रेतः गृह्णन् शुभाशनम् । कर्म बध्नाति मात्मज्ञः, शिग्नित्यं पुरातनम् ।।
अर्थ-आत्मा के स्वरूप को जाननेवाला जो मुनि इन ६ कारणों को समझ कर शुद्ध आहार ग्रहण करता है। वह कर्मों का बंध नहीं कर सकता; किंतु प्राचीन अनेक कर्मों को निर्जरा करता है ॥४७४।।
क्षुधावेदना के होने पर भी प्राहार त्याग करनादुर्योधौ प समुत्पन्न', ह्य पसर्गे चतुविधे । ब्रह्मचर्याशान्त्यर्थ, सर्वजीवदयाप्तये ॥४७५।। तपसे किल संन्यास, सिद्धयेऽानमात्मवाम् । त्योन्मनो अध: कार्यः, सरसुवदनादिषु ।।४७६।।
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