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मूलाचार प्रदीप]
( ७१ )
I द्वितीय अधिकार संयोजन नामक दोषसंयोजयति यो भक्त', शोतमुष्णेन वारिणा। शीतोदकेन बोष्णा, तस्य संयोजनो मलः ।।
अर्थ---जो मुनि ठंडे भोजन को गरम जल में मिलाकर खाता है अथवा गरम भोजन को ठंडे जल में मिलाकर खाता है उसके 'संयोजन' नामका दोष लगता है । ४५८
परिचित भोजन के लाभ - उदरस्याचं मन्नं न, तृतीयांशं जलादिभिः । पूरयेघश्चतुर्थाश, पलं रिक्त सदायमो ॥४५६।। प्रमाण मूतमाहारस्तस्य निधाजयो भवेत् । शुभम्यानं च सिद्धांत, पदनं कर्म निर्जरा ।।४६०।।
अर्थ-मुनियों को अपना आधा पेट अन्नसे भग्ना चाहिये ; एक भाग जलसे भरना चाहिये, और एक भाग खाली रखना चाहिये । इमप्रकार प्रमारण के अनुसार जो मुनि आहार लेता है उसको (१) निद्राका विजय होता है; (२) शुभध्यान होता है: (३) सिद्धांत शास्त्रों का पठन-पाठन होता है और (४) कर्मों की निर्जरा होती है।४५६०४६i
"अप्रमाण' नामक दोषअस्मात् प्रमाणतोऽनदि, मतिमात्र भजेन्मुनिः । यस्तस्याथा प्रमाणात्य, बोयो रोगोऽसमाधिता ।।
अर्थ-जो मुनि इस प्रमाणसे अधिक आहार प्रहण करता है उसके 'अप्रमाण' नामका दोष लगता है । अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और ध्यान का नाश हो जाता है । ।।४६१॥ सध्या मूछितो यः प्रभुक्तेऽन्नाहारमंजसा। मंचभुद्धि भवेसयांगार दोषोऽशुभार्गवः ।।४६२॥
अर्थ-जो मंब बुद्धि मुनि अपनी लंपटता से मूछित होकर आहार को ग्रहण करता है उसके पापोंका सागर ऐसा 'अंगार' नामका बोष प्रकट होता है ।।४६२॥
'धूम' नामक दोषसरसानायलाभेन, निवन् दातृन, मिराशनम् । भुनफि योऽयमो निध', 'धूमदोषं लभेत सः ॥
अर्थ-जो अधम मुनि सरस आहार के न मिलने से, अपने बचनों से वाता की निदा करता हुआ आहार ग्रहण करता है उसके निदनीय धूम नामका दोष प्रगट होता है ।।४६३॥