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मूलाचार प्रदीप]
द्वितीय अधिकार को नहीं जानता है वह अपने कर्मों के प्रालय को कैसे रोक सकता है ? अर्थात् कभी नहीं रोक सकता है ॥३४६॥
भाषा समिति का उपसंहारात्मक विवरणमवेति यनसो नित्य, पालयतु शिवाधिन।। भाषासमितिमत्यर्थे, जिनोक्तां शिवसिद्धये ॥१३४७।
अर्थ-यही समझकर, मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये भगवान जिनेन्द्र देव की कही हुई भाषा समितिको यन्न पूर्वक प्रतिदिन अच्छी तरह पालन करना चाहिये ॥३४७१॥
श्रुतसकलगुणाम्बा, विश्वविज्ञामसानिम् । जिनपतिमुनिसेव्यां, पाविनी धर्ममूलाम् ॥ शिवशुभगतिथीथीं, मोकामा स्थलिप्यं । प्रभास समिति, भाभिधा सईयत्नात् ॥३४॥
अर्थ-यह भाषा समिति समस्त श्रुतज्ञान को देनेवाली है। समस्त विज्ञानको खान है। भगवान् तीर्थकर परमदेव और मुनियों के द्वारा सेवन करने योग्य है, अत्यंत पवित्र है। धर्मको मूल है तथा मोक्ष और स्वर्गगति का मार्ग है। इसलिये मोक्ष को इच्छा करनेवाले मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये, पूरण प्रयत्न के साथ, भाषा समिति का पालन करना चाहिये ।।३४८।।
(३) एपणा समिति का स्वरूपशीतोष्णादि यथालग्ध, भुज्यते यन्मुमुक्षुभिः । परगृहेशानं शुर', संवरणासमिति मता ।।३४६॥
अर्थ-मोक्षकी इच्छा करने वाले मुनिराज, दूसरे के घरमें जाकर, शीत या उष्ण जैसा मिल जाता है, वैसा शुद्ध भोजन करते हैं इसी को 'एषणा समिति' कहते हैं ॥३४६॥ मुक्ता यै रष्टभिर्बोष रेषणाशुद्धि र ता । निर्मला स्यात्प्रवक्ष्येसान्, पिंडशुद्धिमलप्रदाम् ।।३५०॥
अर्थ-पाठ प्रकार के दोषों से रहित हो; वही 'एषणा शुद्धि' निर्मल कही जाती है । इसलिये पिड शुद्धियों से मल उत्पन्न करने वाले उन दोषों को अब कहते हैं ॥३५०॥
ऐषणा के पाठ प्रकार के दोपबोडर्शयोगमा दोषाः, षोडशोत्पादनाभिधाः । दर्शवासन दोषाहि, दोषः संयोजनाहयः ॥३५१।। अप्रमारणस्तोगारो, धूमः कारणसंशकः । प्रमीभिरष्टभिर्दोषैः, समासेन विजितः ॥३५२।।