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मूलाचार प्रदीप ]
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[द्वितीय अधिकार हानि और वृद्धि के भेद से सूक्ष्म प्राभृतके भी २ भेद हैं । अब आगे इन्हीं सब मेदों का स्वरूप विस्तार के साथ कहते हैं तुम सुनो ॥३७६-३७६।। परावृत्त्य दिनं पक्ष, मासं वर्षे च दीयते । बारं अदिवसाचं स्तत्, स्यूलं प्रामृतकं विषा ॥३०॥ घेलो पूर्वाल्छु मध्यान्हा, पराहानां विहाय यत् । ददाति हानि पुद्धिम्यां, सूक्ष्म प्राभृतकं च तत् ।।
अर्थ-जो दान आज वेना हो; उसे कल वा परसों देना अथवा जो वान कल परसों बेना हो उसको किसी मुनि के दाने पर ना होना निमारा पन्ज' नामका 'स्थूल प्रामृत' दोष है । जो दान शुक्ल पक्ष में देना हो, उसे कृष्ण पक्ष में देना अथवा जो कृष्ण पक्ष में देना हो; उसको शुक्ल पक्ष में देना 'पक्ष परावृत्य' नामका स्थल प्राभृत दोष है। इसीप्रकार जो दान चैत में देना हो उसे वैशाख में देना अथवा वैशाख में देना हो उसे चतमें ही बना 'मास परावृत्य' नामका स्थल प्रामृत दोष है । जो दान अगले वर्ष में देना हो, उसे इसी वर्ष में वेना तथा इसी वर्ष में देना हो उसे प्रागे के वर्ष में देना वर्ष-प्रामृत नामका दोष है । जो वान शामको पेना चाहिये उसको किसी संयमी के प्रा आने पर सबेरे ही देना अथवा सवेरे देना चाहिये उसको शाम को बना या दोपहर को देना; ओपहर के देने योग्य दान को सबेरे या शामको वेना, इसप्रकार किसी संयमी के आने पर सवेरे, दोपहर, शाम को देने योग्य दान को बदल कर देना, 'सूक्ष्म प्रामृत' नामका दोष है ॥३८०-३८१॥ इमं प्रावतितं दोषं हिसा संक्लेश कारणम् । त्यजन्तु सर्वथा सबै, बहुभेदं शिवार्थिनः ॥३८२ ।
अर्थ-इसप्रकार काल की मर्यादा के बदलने में हिंसा अधिक होती है और परिणामों में संक्लेशता बढ़ती है इसलिये मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनियों को अनेक प्रकार का यह 'प्रामृत' नामका दोष सर्वथा छोड़ देना चाहिये ।।३८२॥
(2) प्राविष्कार दोष-- प्राविष्कारो द्विधा संक्रमणप्रकाशना धि | भाजनाना तथा भोजनावीना-बाधकारकः ।।३६६।।
अर्थ-'प्राविष्कार' नाम के दोष के २ मेव हैं जो कि संक्रमण करने और 'प्रकाश' करनेसे उत्पन्न होते हैं प्राहार और बर्तनों को बदलने, स्थानांतर करने अथवा प्रकाशित करने में पाप उत्पन्न होता है, इसलिये इसको दोष माना है ॥३८३॥ पाहारभाजनादीना, मन्यस्मासप्रदेशतः । अन्यत्र नमनं भस्मादिमा मामन य यत् ॥३४॥ प्रवीपालन मंड, पावैः प्रद्योतनं हि सः । प्राविष्फरो खिलो दोषः, पापरंभावि वर्धकः ॥३६॥