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मुलाचार प्रदीप ]
( ५६ )
[ द्वितीय अधिकार
अन्नपानादिकं मिथं यदप्रामुरुवस्तुना । पूर्ति दोष एक स्थात पंच मेोऽयकारकाः २२३६६ ॥
अर्थ – जो प्रपानाविक अप्रामुक वस्तु से मिला हो उसको 'पूति दोष' कहते | यह 'पूति दोष' पाप उत्पन्न करने वाला है और उसके ५ मेद हैं ।। ३६६ ॥
(३) पूर्ति दोष
धन्लो वर्षोभोजनं गंध एव हि । प्रतिदोषो इसे शेया, पंच सावधकारिणः ॥ ३६७॥
अर्थ - रंधनी ( चूल्हा) उदुखल (ओखली ) दर्यो ( करछली) भोजन और गंध ये ५ प्रकार के 'पूति दोष' कहलाते हैं । ये सब पाप उत्पन्न करने वाले हैं ।। ३६७ ।। धन्या प्रवराहारं froपाथ साधये धर्म वास्याम्यायों ततो न्येषां प्रतिवोषः स उच्यते ॥
साधु
अर्थ - इस चूल्हे पर सबसे उत्तम आहार बनाया है; इसे सबसे पहले किसी के लिये दूंगा तबनंतर किसी दूसरे को दूंगा ऐसे आहार में 'पूति दोष' उत्पन्न होता है ।। ३६८ ।।
चूर्णयित्वा शुभं वस्तुखले योगिने च यत् । यावद्दास्यामि नान्येभ्यस्तावत्पूतिः स कथ्यते ॥
अर्थ -- किसी प्रोखली में अच्छी वस्तु कूटकर विचार करना कि जबतक इसमें से मुनि को नहीं दे दूंगा तब तक किसी दूसरे को नहीं दूंगा; ऐसे आहार में भी 'पूति दोष' उत्पन्न होता है ॥ ३६९॥
ध्यानयाकृतं द्रव्यं यावद्दास्यामि नोऽजितम् । ऋषिभ्योऽन्यस्य तावन्नपूतिदोषः स पापकृत् ॥
अर्थ - इस करछली से यह श्रेष्ठ द्रव्य बनाया है; जब तक इस करछली से ऋषियों को नहीं लूंगा तब तक किसी दूसरे को नहीं दूंगा इसप्रकार के ग्रन्न में पाप उत्पन्न करने वाला 'पूति दोष' होता है ॥ ३७० ॥
tarfi भोजनं यावत् साधुभ्यो न अतावहं । इदं तावन्न चान्येषां योग्यं पूतिः स एव हि ॥ अर्थ- - इस भोजन में से जब तक साधुओं को नहीं दूंगा तब तक दूसरों को नहीं दूंगा ऐसे अन्न में भी 'पूति दोष' प्रगट होता है || ३७१॥
यति दीयते ना, गंधो भोजनपूर्वक: । यावत्तावन्न योग्योत्र, स्वान्येषां पृतिरेव सः ॥ ३७२ ॥ अर्थ- - इस गंध में से जब तक आहार देकर मुनियों को न चढ़ा लूंगा तब तक यह गंध दूसरों को नहीं दूंगा । इस प्रकार के अन्त में भी 'पूर्ति बोष होता है ॥ ३७२ ॥
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