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मनाचार प्रदीप
द्वितीय अधिकार अर्थ-यह ४ प्रकार का आहार अधःकम से उत्पन्न हुआ है अथवा नहीं इस प्रकार की शंका रखता हुधा भी उस आहार को ग्रहण करता है उसके (१) 'शंकित' नामका दोष लगता हैं ॥४३३॥
२) मृषित नामका दोपफोन हस्तेन, स्निग्धेन भाजनेन च । यद्देयं गृह्यते लोके, दोषो मूषित एव सः ॥४३॥
अर्थ-(२) जो साधु चिकने वर्तन से या चिकने हाथ से अथवा चिकनी करछली से दिये हुये आहार को ग्रहण कर लेता है उसके (२) 'मृषित' नामका दोष लगता है । चिकनी करछली आदि में सम्पूर्धन जीवों को संभावना रहती है इसीलिये यह दोष है ।।४३४॥
(३) निक्षिप्त नामक दोषपृथ्च्यादिषु सनिलेषु, तेजोऽन्तेषु सेषु च । हरितेषु च बीजेए, चेतना लक्षणात्मसु ॥४३५।। वयं वस्तु निक्षिप्तं, साधुभ्यां दीयते जनः । सचित्त दोषदो नियो, दोषो निमित्त एव सः ।।
अर्थ--जो देने योग्य पदार्थ सचित्त पृथ्वी, सचित्त जल, सचित्त अग्नि, सचित्त हरित, सचित्त बीज अथवा त्रस जीवों पर रक्खे हों ऐसे पदार्थों को जो लोग दान देते हैं उनके 'सचिस' दोपको उत्पन्न करनेवाला निंद्य (३) निक्षिप्त' नामका दोष लगता है ।।४३५-४३६॥
(४) पिहित नामक दोप-- सवित्तेनाण्यचित्तेन, गुरुक्षेण च शतम् । दीयते मुनये दानं, यद्दोषः पिहितोऽनसः ॥४३७॥
अर्थ-जो देने योग्य पदार्थ किसी सचित्त पदार्थ से ढके हों अर्थात् भारी अचित्त पदार्थ से ढके हों ऐसे पदार्थों को मुनियों के लिये देना (४) 'पिहित' नामका दोष कहलाता है ।।४३७॥
(५) व्यवहार नामा दोषदानाय व्यवसायं चेल, भाजनादिकात्मनाम् । यत्वा विधीयते दान, यत्स्यात् सः व्यवहारजः ।।
अर्थ-दान देने के लिये जो वस्त्र बर्तन आदि को झटपट बेचकर प्रहार तैयार करता है उसके (५) व्यवहार नामका दोष लगता है ॥४३८।।