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मूलाचार प्रदीप ]
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(१५) चूर्ण नामका दोष -
नेत्रांजनवपुः संस्कार हेतु चूर्णदानतः । या भिक्षोत्पाद्यते लोके, चूर्णदोषो हि सोऽघवः ।।४२७१ अर्थ- जो मुनि नेत्रों का अंजन अथवा शरीर का संस्कार करनेवाला कोई चूर्ण बेकर, लोक में भिक्षा उत्पन्न करता है उसके (१५) 'वर्ण' नामका दोष लगता है ।।४२७॥
[ द्वितीय विकाय
(१६) मूल नामका दोष
दशनाम क्रियते यद्धि, वशीकरण मंजसा । अवशानां जनानां च माया वाक्यादि जल्पनैः ॥ ४२८ ॥ योजनं विप्रयुक्तान, तथानुष्ठीयते भुवि । यत्तत्सर्वं भवेन्मूल, कर्मदोषोऽशुभप्रदः ।।४२६ ।।
अर्थ - जो मनुष्य अपने वश नहीं है उनको मायाचारी के वचन कहकर अथवा और किसी तरह से दान देने के लिये वश कर लेना प्रथवा मनुष्य कितने हो योजन दूर रहते हैं; और दान नहीं देते; दानसे अलग रहते हैं, उनको अपने दान के लिये लगा देश, पश्प उत्पन्न करने वाला (३६) मूल कर्म' नाम का दोष कहलाता है ।।४२८-४२६||
उपसंहार
एसे पत्राश्रिता दोषाः, षोडशोत्पादनायाः । यतिभिर्यत्नतो हेयाः प्रषः कश दोषदाः ॥३ अर्थ-ये १६ 'उत्पादन दोष' कहलाते हैं और पात्रोंके आश्रित रहते हैं तथा इन दोषों में 'अधः कर्म' नामके दोषका भाव श्रवश्य रहता है इसलिये मुनिको यत्नपूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये ||४३०॥
दश प्रश्न दोषों के नाम-
शक्ति भूषितो दोषो, निक्षिप्तः पिहिताभिषः । दोषोऽथ व्यवहाराख्यो, बायको मिश्रसंज्ञको ॥ तथा परितो लिप्तः परित्यजन नामकः । दर्शतेऽशनदोषाहि यत्नात्याज्या मुमुक्षुभिः ।।
अर्थ- आगे १० अशन दोषों को कहते हैं । ( १ ) शंकित ( २ ) मृषित ( ३ ) निक्षिप्त (४) पिहित ( ५ ) व्यवहार ( ६ ) दायक (७) उन्मिश्र (८) परिणत १६ ) लिप्त और (१०) परित्यजन ये दस अशन के दोष हैं। मोक्ष की इच्छा करनेवाले सुनियों को यत्न पूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिये ।।४३१-४३२।।
(१) शंकित नामक दोष
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एतच्चतुविधाहार, भिषः कर्मरंगोद्भवम् । न मेति शंकया भूपते यः स तान् ॥