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मुलाचार प्रदोर]
[द्वितीय अधिकार एतरष्टनिमित्तोप बेशरुत्पाद्य साधुभिः । भिक्षापा गृझसे लोके, निमित्त दोष एव प ।४१०॥
अर्थ----(१) ज्या (२) (1) स्वर (४) छिन्न (५) भौम (६) अंतरीक्ष (७) लक्षण और (2) स्वप्न ये ८ प्रकारके निमित्त माने हैं । इन ८ प्रकार के निमित्तों का उपदेश देकर जो साधु भिक्षा ग्रहण करता है उसके (३) निमित्त नाम का बोष लगता है। (इस दोष से रसास्वादन की लोलुपता और दीनता का बोष लगता है!) 10.४१०॥
(४) प्राणीवन दोष-- जाति कुसं तपः शिरूप, कर्मनिर्दिश्य चात्मनः । करोत्याजीवनं योऽन्छ, समाजोपन दोषभाक् ।।
पर्ष-जो मुनि प्रपनी जाति,फुल, तप और शिल्पकर्म या हाथ को कलानों का उपवेश कर या जाति फुल को बतला कर अपनी आजीविका करता है उसको (४) प्राजीवन नामका दोष लगता है ।।४११॥
(५) वनीपक बचन दोष-- पाखंजिकृपणादीमा, मतिथीनां च धानसः । पुण्यं भवेन्न शाति, पृष्ठो दानो मुनि। क्वचित् ।। पुण्यं भवेदिदं चोकस्वा, ह्यनुकूल वचोऽशुभं । वातुहाति वान यो, दोषो बनीपकोऽपि सः ।।
___अर्थ-यदि कोई गृहस्थ किसी मुनि से यह पूछे कि पारियों को, कृपण या कोड़ी आदि को अथवा भिक्षुक ब्राह्मणों को दान देने में पुण्य होता है या नहीं । इसके उत्तर में यह मुनि उस दाता के अनुकूल यह कह दे कि हां, पुण्य होता है । इसप्रकार अशुभ वचन कह कर उसी वाता के द्वारा दिये हुये दानको ग्रहण करता है उसके (५) वनीपक नामका दोष लगता है ।।४१२-४१३।।
(६) चिकित्सा दोष
( संस्कृत श्लोक नहीं है । ) ॥४१४॥ अर्थ-चिकित्सा शास्त्रों में ८ प्रकार की चिकित्सा बतलाई है। उनके द्वारा मनुष्यों का उपकार कर जो मुनि उम्हीं के द्वारा दिये हुये अन्नको ग्रहण करता है उसके चिकित्सा नामका दोष लगता है ।।४१४॥
(७) क्रोध और (८) मान दोपकोधेनोत्पाद्यते भिक्षा या कोषवोष एव सः । मानेनोत्पाद्यतेऽन्न' भामदोष स एव हि ॥१५॥