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मूलाचार प्रदीप]
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[द्वितीय अधिकार सब दोषों का त्याग कर देना चाहिये ॥४०१।।
१६ उत्पादन दोषधात्रोदूतो निमिसरख्यो, बोष श्राजीवमाययः । बनीपक धचों दोषः, चिकित्सादोष एव च ॥ झोधो मानो तथा माया, लोभाच पूर्वसंस्तुलिः । पश्चात्संस्तुति दोषोडश धामनसमायः ॥ चूर्णयोगाभिषो मूल, कर्मत षोडशा शुभाः । ज्ञेया पात्राश्रिता बोषा, उत्पादन समालयाः॥४०४।।
अर्थ-पागे सोलह उत्पादन दोषों को कहते हैं ये दाता और पात्र दोनों के आश्रित होते हैं उनके नाम नीचे लिखे अनुसार हैं-(१) धात्री (२) दुत (३) निमित्त (४) प्राजीवन (५) बनीपक बचन (६) चिकित्सा (७) क्रोध (८) मान (६) माया (१०) लोभ (११) पूर्वसंस्तुति (१२) पश्चात्संस्तुति (१३) विद्या (१४) मंत्र (१५) चूर्ण योग और (१६) मूलकर्म ।।४०२-४०३-४०४।।
(१) धात्री दोषमज्जनं मंडन कोउन, क्षीरपानकारणम् । तया स्वापषिधि, बालकानां युक्तोपदेशनः ॥४०५॥ गृहिणामुपविश्योत्पाद्यान्न चानीब यद्भुजि । संयत नहाते निघ', घावोदोषः सचोच्यते ।।
अर्थ-जो मुनि गृहस्थों को युक्ति पूर्वक धाय के समान बच्चों को स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, क्रीड़ा कराने, दूध पिलाने और सुलाने आदि की विधिका उपदेश देकर निद्य रीतिसे अन्न उत्पन्न कर ग्रहण करते हैं उनके निदनीय (१) 'धात्री' नामका दोष उत्पन्न होता है ॥४०५-४०६।।
(२) दूतकर्म दोषस्वापरामदेशाविन्मोऽन्न सागारिणां स्वचित् । मानीय शुभसन्देशं, निवेद्य तेन गेहिभिः ॥ मातहर्षेः प्रदत्तं यवनदानमयुक्तिमम् । भूज्यते साधुभिः, इतः दोषः स वृत कर्मकृत् ॥४०८।।
अर्थ-जो मुनि अपने देश से या दूसरे देश से तथा अपने या दूसरे के ग्रामसे गृहस्थोंके शुभ समाचार लाता है तथा जहां जाता है वहां के गृहस्थों से उन समाचारों को कहता है, उन समाचारों को सुनकर हषित हुये उन गृहस्थों के द्वारा दिये हुए दान को स्वीकार करता है उस साधु के (२) दूसकर्म करने वाला 'दूत' नामका दोष लगता है ।।४०७-४०८॥
(३) निमित्त नामका दोषव्यंजनांगे स्वरक्छिनो, भीमान्तरीक्ष संजको । लक्षणं च ततः स्वप्नं, निमित्तमष्टति थे।