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मूलाचार प्रदीप ]
[द्विसीय अधिकार अर्थ-जो अन्न, पान पंक्ति रूपमें रहने वाले दो तीन आदि सात घरों से आया है वह मुनियों के लिये 'योग्य' माना जाता है ।।३६१॥ यस्मात् कस्मात् गृहार, पंक्त्या बिना वाष्टमगेहतः । अाहारादि यवानीतं, ग्रहणायोग्यमेवतत् ।।
अर्थ--जो अन्न, पान बिना पंक्ति रूप से बने हये जिस किसी घर से लाया गया है अथवा आठवें, नौधे घर से लाया गया है। वह मुनियों के ग्रहण करने के 'अयोग्य' समझा जाता है ॥३६२॥
नोट-मूल में ३९३ श्लोक छपना रह गया है उसका अर्थ
आप नी अनुसार समनना चाहिये ॥३९३॥ अर्थ-जो अन्न, पाम अपने गांव से पाया है अथवा दूसरे गांव से पाया है या अपने देश से आया है या दूसरे देश से प्राया है ऐसे अन्न पानको देना 'सर्वाभिघट' नामका दोष कहलाता है ।।३९३।। चतुविधं परिजेयं, स्वपाटकान्यपाटकात् । प्रोदनादि यवानीतं, स्वप्रामाभिषटं हि तत् ।।३६४।।
अर्थ-इस प्रकार 'सर्वाभिघट' दोष के ४ भेद हैं (१) स्वग्रामाभिघट (२) परप्रामाभिघट (३) स्वदेशाभिघट (४) परदेशाभिघट । एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में लाना (१) 'स्वग्रामाभिधट' है और पर ग्राम से अपने ग्राम में लाना (२) 'परग्रामाभिघर' है । अपने देश से गांव में लाना (३) 'स्वदेशाभिघट' है और परदेश से गांव में लाना 'परदेशाभिघट' है ।।३६४।। एवं सर्वोऽपि संत्याग्यो, दोषोऽभिघटसंज्ञका । संयतः संयमार्थ हि, यातायाताभिवाचनात् ॥३६५।।
अर्य-इन सब दोषों में प्राने जाने में जीवों को बाधा होती है इसलिये संयमियों को अपना संयम पालन करने के लिये सब तरह के (१२) 'अभिघट' दोषों का त्याग कर देना चाहिये ।। ३६५।।
(१३) उद्भिन्न दोषघृताकि भाजनं कर्द, मादिना मुद्रितं बलम् । द्भिध यच्चयं स, उदिनदोषनामकः ।।३६६।।
अर्थ-जो घी, गुड, शक्कर का पात्र, किसी से का हो या कीचड़ आदि के जंतुओं से आच्छादित हो रहा हो, उसको उघाड़ कर भुनियोंको देना (१३) 'ड्रिन्न' नाम का योष कहलाता है । ढके हुये में भी चोंटी आदि चढ़ सकती है इसलिये यह