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मूलाचार प्रदीप]
( ५७ )
[ दितीय अधिकार प्रथमारंभ संजात, मिदमाहार मंजसा । यतिभिः परिहत्तव्यं, दातृसंकल्पदोष ।।३७३।।
___ अर्थ-अभिप्राय यह है कि किसी भी पदार्थ से प्रथम प्रारंभ हुआ, प्रथम ही बनाया हुआ, भोजन मुनियों को ग्रहण नहीं करना चाहिये ; क्योंकि उसमें दाताके संकल्प का योष उत्पन्न हो जाता है ॥३७३।।।
(४) मिध दोषमुनिः यो मुहिम,
पिसाव । तापखंडिसागारः, मिश्रदोषोऽत्र सौघदः ।। अर्थ-मुनियों को देने के उद्देश्य से पाखंडी गृहस्थों के साथ-साथ जो अन्न तैयार किया गया है उसमें (४) 'मिश्र' नामका दोष उत्पन्न होता है ॥३७४।।
(५) स्थापित दोषपाकं भाजनसोऽन्परिमन्, भाजनेस्थापितं च यत् । अन्न स्वान्यस्य गेहेवा, सदोषः स्थापितामः ।।
अर्थ-जिस बर्तन में भोजन बनाया गया हो, उसमें से लेकर यदि किसी दूसरे बर्तन में रख दिया गया हो, चाहे वह अपने घर में रखा हो; और चाहे दूसरों के घर में रख दिया हो ऐसे अन्न के लेने में (५) 'स्थापित' नामका दोष होता है ॥३७५।।
(६) बलि दोषथानागावि देवानां, निमित्तं यः कृती बलिः । तस्य शेषः स प्राप्त', उपचारेण भो बलिः ।।
अर्थ-किसी यक्ष, नाग आदि देवों के लिये जो अन्न तैयार किया जाता है उसमें से उनको देकर जो बच रहता है उसको उपचार से (६) 'बलि' कहते हैं। ॥३७६।। संयतागमनार्थ यद् अलिकर्म विधीयते । अम्बुि क्षेपणाचं वा बलिदोषः स उच्यते ।।३७७।।
___ अर्थ-अथवा संयमियों के आने के लिये पूजा, नल क्षेपणादि के द्वारा जो बलिकर्म किया जाता है वह नी (६) 'बलि' नामका दोष कहा जाता है ॥३७७।।
(७) परावर्तित दोषविधा प्राभृतकं बावर सूक्ष्माभ्यां प्रकीलितं। बादरं द्विविध काल, हानिद्धि द्विभेदतः ।।३७८ः। सूक्ष्म प्राभृतक धोक्तं काल हानिवृशिता । अमीषां विस्तरेणतान मेवान् अणु कोऽघुना ।।
अर्थ-प्राभृत दोष के २ भेद होते हैं एक बादर और दूसरा सूक्ष्म । कालको