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मूलाचार प्रदीप
[ द्वितीय अधिकार १६ उद्गम दोषों का वर्णनपांच उशिको दोषो, द्वितीयोऽच्याधिनामकः । पूप्ति मिश्राभिधो दोषः, स्थापितों लिसंज्ञकः ।। प्राबतितालमा प्रोविपकरणः क्रोत एव च । ततः प्रामिछवोषोऽथ, परिवर्तकसंज्ञकः ॥३६॥ दोषोऽभिघट उनिलो, मालारोह समायः आच्छेद्याख्योप्यनौशार्थो, ऽमीवोषा: षोडशोद्गमाः । नागारि देव पाखंडि, योन वर्थ म यत्कृत। उहिस्यान्तं गृहस्यैत, दुद्दे शिकमिहोच्यते ।।३६२।।
मर्य--अब १६: उगम बोषों को कहते हैं-(१) उद्देशिक (२) अध्यधि (क) प्रति () मिष (५) स्यापित (६) बलि (७) परापत्तित (6) प्राविक्करण (8) कील (१०) प्रामिच्छ (११) परिवर्तक (१२) अभिघट (१३) उद्भिन्न (१४) मालारोहल (१५) आच्छैच और (१६) अनोशार्थ ये १६ 'उद्यम दोष कहलाते हैं । ॥३५६-३६१॥
(१) उद्देशक दोषअर्थ-गृहस्थों के द्वारा जो नागादि देवों के उद्देश्य से अश्रया पाखंडियों के या दोन हीन मनुष्यों के उद्देश्य से जो प्राहार तैयार करते हैं, ऐसे माहार को लेना (१) 'उद्देशक दोष' कहलाता है ।।३६२।। सामान्यांश्च जनान् कांश्चित, तथा पाखंडिनोऽखिलान् । धमणान परिव्राजकादोनिग्रंथ संपतान् ।। उद्दिश्य यत्कृतं चान्न, मुद्देशिक चतुर्विधम् । तत्सर्वं मुनिभिस्त्याज्यं, पूर्वसावद्यदर्शनात् ।।३६४॥
अर्थ-एक तो अन्य सामान्य लोगों के लिये, भोजन बनाया जाता है। दूसरे बहुत से पाखंडियों के लिये बनाया जाता है तीसरे परिव्राजक साधुओं के लिये बनाया जाता है और चौथे निग्रंथ मुनियों के लिये बनाया जाता है; वह जो चारों के उद्देश्य से आहार बनाया जाता है वह चार प्रकार का 'उद्देशिक' कहलाता है। मुनियों को उस आहार के बनने के सब पापों को देख कर सबका त्याग कर देना चाहिये । ॥३६३-३६४॥
(२) अध्यधि दोषदानार्थ संयतान् दृष्ट्वा, निक्षेपोयः स्वतंडले। अन्येषा संडुलानां स, दोषोध्यधिसभाह्वयः ॥३६५११
___ अर्थ-आहार के लिये प्राते हुए संयमियों को देखकर पकते हुए अपने चावलों में किसी दूसरेके चावल और मिला देना (२) 'अध्यधि' नामका दोष कहलाता