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मूलाचार प्रदीप ]
[द्वितीय अधिकार अनयंकरी भाषापर पंडनकरी शीलानां या चाचोन्य गतासमनाम । 'विद्वयकारिणों भाषा, स्मृता सानानयंकरा।।
____ अर्थ --जो भाषा परस्पर एक दूसरे के शील खंडन करनेवाली है यह परस्पर विद्वेष उत्पन्न करनेवाली है उसको 'अनयंकरी' भाषा कहते हैं ॥३२७॥
छेदकरी भाषा. . वीर्यशीलगुणादीमां, या निर्मूलविधायिनी । अस तान्यदोवोद्भाविनी छेदकरात्र सा ॥३२८।।
अर्थ-जो भाषा वीर्य शील और गुणों को निर्मूल नाश करने वाली है। जो असत्य है और दूसरों के दोषों को कहने वाली है वह 'छेदकरी भाषा है ॥३२८॥
भूतवधकरी भाषा - प्राणनाशोऽशुभं पीड़ा, भूतानां जायते यथा । सानिष्टकरी मूला, सा गौमूतषधंकरी ।।३२६।।
अर्थ-जिस भाषा से जीवों का प्रारण नाश होता हो; अशुभ और पीड़ा उत्पन्न होती हो; जो सब तरह का अनिष्ट करने वाली हो; उसको 'भूतबंधकारी' भाषा कहते हैं ।।३२।। इमा दश विधा भाषाः, खन्या सनसां भुषि । प्राणान्तेऽपि न वक्तव्या, मुनिभिः परवुःखाः ।।
अर्थ-यह १० प्रकार की भाषा, समस्त पापों की खान है; और दूसरों को दुःख देनेवाली है । इसलिये मुनियों को अपने प्राण नाश होने पर भी, ऐसी भाषा कभी नहीं बोलनी चाहिये ।।३३०।।। विधेया न कथा स्त्रोणा, श्रृंगार रसवनिः । कामादि बीपिका जातु, अतिभिः ब्रह्मनाशिनी ।।
अर्थ-व्रतो पुरुषों को ऐसी भाषा कभी नहीं बोलनी चाहिये; जो काम के विकार को बढ़ाने वालो हो; और ब्रह्मचर्य को नाश करने वाली हो तथा ऐसी कथा भी नहीं कहनी चाहिये ; जिसमें स्त्रियों के श्रृंगार रस का वर्णन हो ॥३३१॥ भक्तपान रसाबीनामिष्टानां सुखकारिणाम् । क्वचिन्न कुकथा कार्या, हारसंशाप्रवद्धिनी ।।३३२।।
अर्थ-प्राहार संज्ञा को बढ़ाने वाली, तथा मीठे और सुख देने वाले भोजन पान या रस आदि का वर्णन करने वाली कुकथा या भोजन कया भी नहीं कहनी चाहिये ।।३३२॥ रौद्रकर्मोद्धवा निद्या, रौद्रसंग्रामपोषणः । भूभुजां कुकथा त्याज्या, रोमध्यानविधायिनी ॥३३३॥
अर्थ- रौद्र संग्राम का वर्णन करने से रौद्र कर्म को उत्पन्न करने वाली और