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मूलाधार प्रदीप ]
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मान किया जाता है उसको 'प्रत्याख्याना' भाषा कहते हैं ।।३१२॥ सयंत्रात्रानुकूलाया, स्वेच्छया प्रोच्यते जनैः । भाषा सेच्छानुलोमाध्या
व करोम्यहं ॥
अर्थ- 'मैं ऐसा करता हूं' इसप्रकार सर्वत्र अपने अनुकूल अपनी इच्छानुसार बोलने को 'इच्छानुलोमा' नामकी भाषा कहते हैं ॥ ३१३॥
द्वितीय अधिक
बालबुद्धपशूर्ना च यथा नार्थः प्रतीयते । भाषया संशयाथत, वचनी सा निगद्यते ॥३१४॥ अर्थ- बालक, वृद्ध और पशुओं की भाषा से अर्थ की प्रतीति नहीं होती इसलिये उसको 'संशय वचनी' भाषा कहते हैं ।। ३१४ || अक्षरगला भाषा, यानीन्द्रियादि देहिनाम् । सात्रा सत्यमुषा नाम्मी, काते नवमः ॥ अर्थ – दो इन्द्रिय, इन्द्रिय आदि जीवों को जो अक्षररहित भाषा है उसको 'अक्षरा' नामकी 'अनुभव भाषा' कहते हैं ।। ३१५ ।।
विशेषा प्रतिपत्ते, भूषामेवनबान्विता । ( आगे की पंक्ति मूल पाठ में ही नहीं है । ) । । ३१६॥ अर्थ- - इन & प्रकार की भाषाओं में पदार्थ के विशेष स्वरूप का ज्ञान नहीं होता; इसलिये ये वचन सत्य नहीं कहलाते; तथा इनसे सामान्य का ज्ञान होता है इसलिये इनको असत्य भी नहीं कहते; एतएव इन 6 प्रकार की भाषाको 'अनुभव' वचन कहते हैं ३१६।।
शश्वन्मौनं विषालु ये, समर्था योगिनों भुवि । सत्यानुभयभाषाभ्यां से अर्थ - इस संसार में जो मुनि सदा काल मौन धारण उनको सत्य और अनुनय भाषा के द्वारा शुभ वचन कहने चाहिये ।।३१७॥
वस्तु वचः शुभम् ॥
करने में असमर्थ हैं
कर्कशा कटुका भाषा, परुषा निष्ठुराघवा । परप्रकोपिनी मध्य, कृशाभिमानिनीचगः ॥ ३१८ । । तरकश छेद करी मूलवर्धक । नियमा दशषा भाषा, त्याज्या निधाधिकारिणी ॥३१६ ।।
अर्थ - ( १ ) कर्कश (२) कठोर (३) कटुक ( ४ ) निष्ठुर ( ५ ) पर प्रकोपिनी (६) मध्यकृता (७) अभिमानिनी (८) अनयंकरी (६) देवंकरी (१०) और naiकरी ये १० प्रकार की भाषायें निय' कहलाती हैं; निच जीव ही इसके बोलने के अधिकारी होते हैं इसलिये इन निद्य भाषाओं का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । ।। ३१८-३१६।।
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