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मूलाचार प्रदीप!
[द्वितीय अधिकार जो काम करने की इच्छा की जाती है उसको 'संभावना सत्य' कहते हैं । जैसे—यह समुद्र भुजाओं से पार किया जा सकता है या नहीं ॥२६॥ ध्यपहारेण कार्यादी, प्रोज्यते पदयो भनेः । व्यवहाराश्यसत्यं तद्, याक रोऽन पश्यते ।।
अर्थ-किसी भी कार्य में, व्यवहार से जो लोग वचन कहते हैं उसको 'यथा हार सस्य' कहते हैं। जैसे यह भात पकाया जाता है, पके चावलों को 'भात' कहते हैं तथापि व्यवहार में भात पकाना कहते हैं ॥२६७।। हिसादिवशेषदूरं यत्, सत्यं वा सत्यमुच्यते । भावसत्यं च तल्लोके, दृष्टपचौरी ययात्र न १२९८॥
अर्थ-जो हिंसाविक पापों से रहित, वचन है उनको 'भाव सत्य' कहते हैं; जैसे-घरमें 'चोर' रहते हुए भी कहना कि यहां नहीं है ॥२८॥ प्रौपम्येनात्र संयुक्त, ब्रयते वचनं च यत् । उपमासत्यमेतद्, यथा पल्योपमादयः ॥२६६।।
अर्थ- जो पचन किसी 'उपमा' के साथ कहे जाते हैं उन्हें 'उपमा सत्य' कहते हैं, जैसे-पल्य, सागर आदि ॥२६६।। प्रमीभि दंशभि भाषाभेद धर्मप्रवृत्तये । प्रागमोक्ष: स्वतस्वनाः, बदन्तु सूभूतं वचः ॥३०० ।
अर्थ- प्रात्मतत्त्वको जाननेवाले, पुरुषों को धर्मकी प्रवृत्ति करनेके लिये आगम में कहे अनुसार, भाषा भेद से जो १० प्रकार के सत्य के भेद हैं उन्हें ही बोलना चाहिये ॥३०॥
असत्य वचन का स्वरूपभाषा मेवेन्य एतेभ्यो, दशभिः प्रोभतेऽत्रया । विपरीताऽशुभाभाषा, तबसत्यं वयोमतम् ।।३.१॥
अर्थ-भाषा के मेद से जो सत्य के १० भेद बतलाये हैं उससे विपरीत जो अशुभ भाषा है उसको 'असत्य वचन' कहते हैं ॥३०१।। सत्यासत्यद्वयोपेता, भाषा या अ यते नरैः । सान सत्यमुषा, भाषा भाषिता श्री जिनागमे । तस्मात् सत्यमषा बादात, विपरीत व भाषरणम् । यस्मासस्यमषा भाषा, नबपा कथिता श्रुते ।।
अर्थ- मनुष्यों के द्वारा, जो सत्य और असत्म उभय रूप भाषा बोली जाती है उसको जिनागम में 'सत्या सत्य' भाषा कहते हैं। उस 'सत्यासत्य भाषा से जो विपरीत भाषण है उसको 'अनुभय भाषा' कहते हैं; अथवा 'असत्यासत्य' कहते हैं, वह अनुभव भाषा शास्त्रों में प्रकार की रतलाई है ॥३०२-३०३॥