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मूलाचार प्रदीप]
[द्वितीय अधिकार यथा छ प्रोष्यते लोकः, सर्वभाषाभिरोदनं । चौरः द्राविभाषाभिः, म विवादोऽनविनते ।।
अर्थ-अनेक देशों की भाषा में जो शुभाशुभ कहा जाता है और जो किसी के विरुद्ध नहीं होता; उसको (१) जनपद सत्य कहते हैं; जैसे लोग सब भाषाओं में 'प्रोदन' या 'भात कहते हैं अथवा चोर भी सब भाषाओं में कहते हैं तथा द्राविड़
आदि किसी भाषा में उसके लिए विवाद उपस्थित नहीं होता इसको 'जनपद सत्य कहते हैं ।।२८६-२६॥ बहुभिः संमतं यत्तत, सत्यं सम्मतमुच्यते । मानुष्येऽपि यथा सोफे, महादेवी निगद्यते ॥२१॥
अर्थ-जिसको बहुतसे लोग मानें उसको 'संमत सत्य' कहते हैं जैसे-रानी मनुष्य है तो भी उसे 'महादेवी' कहते हैं ॥२६१॥ स्थाप्यते प्रतिबिंयत्, स्थापना सत्यमेव तत्। यथार्हन्मुनिसिद्धानां, प्रतिमा_प्रवृत्तये ॥२२॥
अर्थ-किसी के प्रतिबिंब को स्थापन करना स्थापना सत्य है। जैसे-पूजा करने के लिए अरहंत, सिद्ध या मुनियों को प्रतिमा स्थापन की जाती है ॥२६॥ गुणस्तथ्यमतभ्यं का, नाम यत्क्रियते नरणाम् । नामसत्यं तदेवात्र, वेक्वत्तो यथा पुमान् ।।२९३॥
अर्थ-जो मनुष्यों का नाम रखा जाता है। वह गुणों से सत्य भी होता है और असत्य भी होता है तथापि उसको 'नाम सत्य' कहते हैं । जैसे--किसी पुरुष का नाम 'देवदत्त' रख लिया जाता है ।।२६३॥ मुख्यवर्णन यत्रूपं, 'रूपसत्यं तदुच्यते । यथा श्वेता बलाफाख्या, सति वर्णातरेपरे ॥२४॥
अर्थ-जो रूप किसी मुख्य वर्णसे कहा जाता है उसको 'रूप सत्य' कहते हैं जैसे 'बमले' सफेद होते हैं । यद्यपि 'बगलों में और भी वर्म होता है तथापि वे सफेद हो कहलाते हैं ॥२६४॥ अन्य हापेक्य सिद्ध परप्रनीतसत्यमेव तत् । यथा दीर्घोऽयमन्यत हस्वभपेक्यात्र कथ्यते ।।२९।।
अर्थ-जो अन्य किसी पदार्थको अपेक्षा से सिद्ध होता है उसको 'प्रतीत सत्य' कहते हैं। जैसे पह लंबा है। यह लंबाई किसी को कम लंबाई को अपेक्षा से कही जाती है ॥२६॥ शक्याशक्यविभवाम्पा, कार्यकत्तुं यवोहते । संभावना भिषं तबाहम्यां सतुं यथाम्बुधिम् ।।
अर्थ-यह काम हो सकता है या नहीं; इस प्रकार दोनों ओर के विकल्पसे