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मूलाचार प्रदीप ]
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[ द्वितीय अधिकार प्रकार कहना भी पापका कारण है। इसीलिये व्रती पुरुषों को इस प्रकार भी कभी नहीं कहना चाहिये ।।२७६।। चतुर्हस्तांतरालस्यो, महीं बीफ्याति पत्नतः । शनः पादोऽत्र दातव्यः, पथोर्यागमनोधतः ।।२७७।।
अर्थ- विति से मस की इच्छा करने वाले मुनियों को बड़े प्रयत्न से, ४ हाथ पृथ्वी देखकर धीरे धीरे पैर रखना चाहिये ।।२७७।। पूर्व विरवा परी वीक्ष्य, दूरस्पों प्रासुको बुधाः । कुर्वन्तु गमनं पश्चात्, संकोच्यावयवान सदा ।।
मार्थ--पहले खड़े होकर, दूर तक को प्रामुक भूमि देख लेनी चाहिये और फिर विद्वानों को, अपने शरीर के अवयवों को संकोच कर गमन करना चाहिये ।२७८। काष्ठपावारणमन्यहा, ज्ञात्वा चलाचलं नुधैः । तेषु पापं विधायाशु, न गंतव्यं दयोधतं. ॥२७६।।
अर्थ-दया धारण करने वाले विद्वानों को काठ या पाचारण को हिलता हुआ समझ कर, उन पर पैर रखकर गमन नहीं करना चाहिये ।।२७६॥ शीघ्र गमनं काय, नातिमंदं च संयतेः । सहसानिनं दातम्यः, स्थित्वा मार्गे च जल्पनम् ॥२८०।।
अर्थ-मुनियों को न तो शीघ्र ही गमन करना चाहिये; न धीरे ही गमन करना चाहिये ; न अकस्मात् किसी पर पैर रखना चाहिये और न मार्ग में खड़े होकर बातचीत करनी चाहिये ॥२८०।। इतोर्यागमनस्याहों, विधि शात्वा ति ये। स्वकार्येऽन्त्र भवेत्तेषा, पर्रया समितिः सताम् ।।
अर्थ-इसप्रकार ईर्यागमन की विधि समझकर जो अपने कार्य के लिये गमन करते हैं। उन सज्जनों के उत्कृष्ट ईर्यासमिति होती है ॥२८१।। तां विना स्वेच्छया मेऽत्र गमनं कुर्वते युधाः । तेषां षडंगघातेन, नश्वाध ब्रतोसमम् ।।२८२॥
अर्थ---जो विद्वान् इस ईर्या समिति के बिना, स्वच्छंद गमन करते हैं; वे छहों कार्य के जीयों का घात करते हैं और इसीलिये उनका 'अहिंसा महाव्रत' नष्ट हो जाता है ।।२८२॥
मुख्यमन स्वरूप ईर्यासमितिमत्वेति धीधना जातु, मा वजन्तु महीतले । त्यक्सासमिति पाध, व्रताभ्यांवतयुद्धये ॥२३॥
अर्थ-यही समझकर, बुद्धिमान् पुरुषों को अपने व्रत शुद्ध रखने के लिये,