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मुलाचार प्रदीप
. द्वितीय अधिकार स्वं मूर्खस्वं बसीबों, न किंचित्रे सिरे शठ । संताप जननी त्याचा, पागीः सा कशोच्यते ।।
अर्थ--तू मूर्ख है; तू बैल है, अरे शठ ! तू कुछ नहीं जानता इसप्रकार की संताप को हत्या करने वाली जो भाषा है, उसको 'कर्कश' भाषा कहते हैं ।३२० कुमातिस्त्वं च निर्षम, इत्यादि वधनं च यत् । उव गजननी भाषा, कटुका सा मतागमे ॥३२१॥
अर्थ- कुजाति है। तू अधर्मी है। इस प्रकार के जो वचन हैं या उद्वेग करने वाली भाषा है उसको भागम में 'कटुक भाषा' कहते हैं ।।३२१॥ भनेकावर गुण्टोऽति, दमाचारपररांगभुषः । इत्यादि पदयो मर्म, चालनो परापात्र सा ॥३२२।।
निष्ठुर भाषाअर्थ-'तू बहुत अंशों में दुष्ट है। तू आचार पालन करने से परांगमुख है' इसप्रकार के मर्म छेदने वाले वचनों को 'परुष' भाषा कहते हैं ।।३२२।। स्वामहं मारयिष्यामि, कर्तयिष्यामि ते शिरः । इत्यादि बयते वाक्यं, यत्सा भाषातिमिष्ठरा ।।
अर्थ-'मैं तुझे मार डालंगा तेरा मस्तक काट डालगा इस प्रकार के वचन कहना निष्ठुर भाषा है ।।३२३॥
परकोपिनी भाषाकि से तयोऽत्र निलंज्जस्त्वंरागी हसमोधतः । इत्याविकोपवाक्यं यत्सागीः परकोपिनी ।।३२४॥
अर्थ-हे निर्लज्ज, तू यह क्या तपश्चरण करता है क्योंकि तू रागो है, सदा हंसता ही रहता है । इस प्रकार के क्रोध उत्पन्न करने वाले वचनों को 'परकोपिनी' भाषा कहते हैं ।।३२४॥ हड्डानांमध्यभागं च, यया निष्ठुरया गिरा । कृरयते सुभता मध्य, कृशा सा निर्वयागीः ॥३२५।।
अर्थ-जिस निष्ठुर भाषा से, हड्डी के मध्य भाग भी कट जाय, ऐसी निर्दय भाषा को 'मध्यकृषा' भाषा कहते हैं ।।३२५॥
अभिमानिनी भाषास्वगुणल्यापमं लोके परेषां दोषभाषणम् । यया ध क्रियते निचं, नियागीः साभिमानिनी ॥
अर्थ-निंद्य लोग जिस भाषा से अपने गुणों का वर्णन करते हैं और दूसरे के दोषों का वर्णन करते हैं उस भाषा को 'अभिमानिनी' भाषा कहते हैं ॥३२६।।
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