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मूलाचार प्रदीप]
( ३२ )
[प्रथम अधिकार तता प्रेमानुषः, प्रवर्धते झ भयोस्ततः । उत्कंठते शुभं घेतः कामभोगावि केवलम् ॥२१॥ 'दानदाक्षिण्यवाधि, भयोः वर्षते स्मरा। सखः कामाभिलाषेण, परा प्रीलिश्म जापते ।।
अर्थ--देखो, (१) सबसे पहले तो 'दृष्टिपात' होता है तदनन्तर (२) मन मोहित होता है (३) फिर वह मनुष्य उससे प्रेम करने लगता है (४) फिर यह उसकी कथा कहता है (५) फिर उसके गुरगों का वर्णन करता है (६) तदनन्सर उन दोनों के प्रेम का सम्बन्ध बढ़ला है (७) फिर उन दोनों का मन उत्कंठित होता है अथवा काम सेवन आदि को उत्कंठा करता है (4) तदनन्तर परस्पर देने लेने व चतुरता को बातगीर का जौर की रोगी ही मारे दोनों का कामवेष कढ़ता जाता है । (६) तदनन्तर काम सेवन की इच्छा से दोनों में प्रेम की मात्रा खुब बढ़ जाती है । ॥२१४-२१६॥ सया मिलति चान्योन्यं, मानसं कामलालसम् । प्रणश्यति तोलन्जा, कंदर्पशरताडिता ॥२१७॥
अर्थ-फलस्वरूप काम सेवन' की लालसा करने वाला उन दोनों का मन परस्पर मिल जाता है और (१०) फिर कामदेव के बाणों से साडित हुई लज्जा शोध ही नष्ट हो जाती है ॥२१७॥ निर्लज्जः कुरुते कर्म, रहोगल्पनमन्वहम् । तयोस्ततश्च कामाग्नि, दुनिवारो मिजभते ।।२१८॥
अर्थ---तदनंतर निर्लज्ज होकर वे दोनों एक दिन एकांत में बैठकर बातचीत करने का कार्य करते रहते हैं और फिर उन दोनों की कामरूपी अग्नि ऐसी बढ़ जाती है जो किसी से रोको नहीं जा सकती ॥२१॥ महामामस्ततस्तेन, महिरन्त स्मराग्निना । प्रविधार्यतमा वाशु, पर्तते निश धर्मणि ॥२१॥
अर्थ- उस कामदेव रूपी अग्नि से वे बाहर और भीतर जलते रहते हैं; जिससे उनका विचार सब नष्ट हो जाता है और विचार तथा बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण ये दोनों शीघ्र ही निद्य कर्म में प्रवृत्ति करने लग जाते हैं ।।२१६॥
फलतः सर्वगुणों का नावातेन श्रुतं तप. शोलं, कुलं च वृत्तमुत्तमम् । इंधनीकुश्ते भूटः, प्रविश्य स्त्री विमानले ।।२२०॥
अर्थ -- उस निध कर्मके करने से वह मूर्ख स्त्री रूपी अग्निकुडमें, पड़कर अपने उत्तम श्रुतज्ञानको, तपश्चरणको, शोलको, कुलको और धारित्रको जला डालता है ।२२०॥