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मूलाचार प्रदीप]
[ प्रथम अधिकार दुर्गधमय अत्यन्त घृणित और नरक के घरके समान प्रसार समझी जाती है । उसमें भला सज्जन लोग कैसे अनुराग कर सकते हैं प्रथांत कभी नहीं ॥२०१॥ सूक्ष्मा असम्म पर्याप्ता, जायन्तेमानवाः सदा । योनौ नाभौ च कक्षायां, विश्वस्त्रीणां स्तनान्तरे ।।
अर्थ-कर्मभूमि की समस्त स्त्रियों की योनि में, नाभि में, कांख में और दोनों स्तनों के मध्य भाग में सूक्ष्म और अलब्ध पर्याप्तक मनुष्य सदा उत्पन्न होते रहते हैं ॥२०॥ तेषु सई प्रदेशेषु, नियन्ते जन्तुरामयः । लिंगह स्तादिसंस्पर्शादिस्युक्तस्वागमे जिनः ।।२०३॥
अर्थ--उन समस्त प्रदेशों में लिंग अथवा हाथका स्पर्श होता है । उस स्पर्श से यह सब जीवों की राशि मर जाती है। ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने अपने प्रागम में बतलाया है ॥२०३।। प्रतो मुनीश्वरनिंद्य, स्वभ्र वुःखनिबंधनम् । सर्वपापकरो भूतं, मैथुन स्थारमार्गगम् ।।२०४॥
अर्थ इसलिये कहना चाहिये कि यह मैथन कर्म मुनीश्वरों के द्वारा निंदनीय है, नरक के दुःखों का कारण है, समस्त पापों को खान है और कुमार्ग में ले जाने वाला है ॥२०४।। कामदाहाविशान्त्यर्थ, सेवन्ते थेऽत्र मैयुनम् । वृषमास्तेऽनलं दीप्तं, तेलेन वारयन्ति भोः ।।२०।।
अर्थ- जो लोग केवल काम के संताप को शांत करने के लिये, मैथुन सेवन करते हैं, उन्हें 'बैल' समझना चाहिये थे लोग जलती हुई अग्नि को तेल से बुझाना चाहते हैं ॥२०॥ कार्य न शयनं जातु, कोमले संस्तरे क्वचित् । भासने धासमं ब्रह्म, घातक ब्रह्मचारिभिः ।।२०६॥
अर्थ-ब्रह्मचारियों को कोमल बिछौने पर कभी नहीं सोना चाहिये और न कोमल आसनपर बैठना चाहिये, क्योंकि ब्रह्मचारियों को कोमल आसन भी ब्रह्मचर्य फा घात करनेवाला है ।।२०६॥ सर्षः शरीरसंस्कारः, कामरागाविषर्धकः । न विधेयो बुधनियो, ब्रह्मरक्षातमानसः ॥२०॥
अर्थ-शरीर का सब तरह का संस्कार, काम और रागको बढ़ाने वाला है तथा निदनीय है। इसलिये ब्रह्मचर्य की रक्षा करने में जिनका मन लगा हुआ है ऐसे बुद्धिमान् पुरुषोंको किसी भी प्रकार का शरीर का संस्कार नहीं करना चाहिये ।२०७॥