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मूलाचार प्रदीप ]
( ३८ )
[ प्रथम अधिकार
दुःखों से रहित, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और मोक्ष में उनको आरणी के अगोवर ऐसा नित्य सुख प्राप्त हो जाता है ।। २५३॥
द्रव्यादीनुपधीन् बाह्यान् यः क्लीवस्त्यक्तुमक्षमः सोऽन्तः स्थान व कबायावीन्, रिपून् हंति कथं बहून् ॥ २५४ ॥
अर्थ-तो नपुंसक मनुष्य ( कुछ न करने वाला) घन, धान्य नादि बाह्य परिग्रहों का ही त्याग नहीं कर सकता; वह भला अंतरंग कषाय रूपी अनेक शत्रुओं को कैसे मार सकता है ? अर्थात् कभी नहीं ॥२५४॥
पूर्व व्यवस्थाखिलान् संगान्, कटिसूद्रादिकान् ततः । seen गृह्णाति यः सोऽहो कि न लब्जते ।। २५५ ।।
अर्थ- जो सुनि पहले तो करधनी प्रादि समस्त परिग्रहों का त्याग कर देता है; और फिर वह इष्ट पदार्थों को ग्रहण करता है आश्चर्य है कि यह फिर भी लज्जित नहीं होता ।। २५५।।
धन्या पुज्यास्त एवात्र विरक्ता ये मुमुक्षब । शरीराविषु नेहन्ते, संगं स्वल्पं सुखादि वा । २५६ । अर्थ - इस संसार में मोक्ष की इच्छा करने वाले जो वीतरागी पुरुष हैं वे ही धन्य और पूज्य हैं; क्योंकि वे शारीरादिक के लिये भी कुछ परिग्रह नहीं चाहते और न कभी सुख की इच्छा करते हैं ।। २५६ ।।
विज्ञायेति द्विषा संगान्, स्यमंतु मुक्तिकांक्षिणः । सौस्येवैषयिकः साधं, हत्था सोभाक्षविद्विषः ।
अर्थ – यही समझ कर, मोक्ष की इच्छा करने वाले मुनियों को लोभ और इंद्रिय रूपी शत्रुनों को नाश कर, विषय जन्य सुखों के साथ साथ दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये ।। २५७||
शब्दरूपरसस्पर्श गंधेषु विषयेषु च । सुमनोज्ञामनोज्ञेषु, पंचाक्षाणामिहाखिलाः || २५८ || राग बाद दस्त्यज्यन्ते ये सुभावना । ताः पंच सर्वदा ध्येयाः, पंचमव्रत शुद्धमे || २५६ ॥ अर्थ- इन्द्रियां ५ हैं तथा उनके विषय भी शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध ये पांच हैं, ये पांचों विषय मनोज्ञ भी होते हैं और श्रमनोज्ञ भी अथवा प्रतिष्ट भी होते हैं; इन सबमें चतुर पुरुषों को राग, द्वेष छोड़ देना चाहिये; मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज विषयोंमें द्वेष छोड़ देना चाहिये । इन्हीं को परिग्रह त्याग महाव्रत