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मूलाचार प्रदोग]
[प्रथम अधिकार असंयत अनच्छात्रो, वासुश्र षादि हेतवे । प्रसंयमकरः स्वांते, रक्षणीयो न संयते ॥२४०।।
अर्थ--मुनियों को अपनी सेवा, सुश्रूषा करने के लिये भी, असंयम को बढ़ाने वाला प्रसंयमी मनुष्य या विद्यार्थी अपने समीप नहीं रखना चाहिये ।।२४०।। यसत्यादौ विधेयं न, स्वामित्वं संगकारणम् । पुजा द्रव्यांगचेलेषु, चान्यत्र परवस्तुनि ।।२४१॥
अर्थ--इसीप्रकार 'वमतिका' आदि में भी अपना स्वामित्व नहीं रखना चाहिये ; क्योंकि उसमें 'स्वामित्त्व' रखना भी परिग्रह का कारण है तथा पूजा द्रव्यके अंगभूत वस्त्र आदि पर वस्तुओं में भी अपना 'स्वामित्व' कभी नहीं रखना चाहिये । ॥२४॥ बहुनोक्तेन कि साध्य, मनाइयो न योगिभिः । बालानः कोटिमात्रः, श्रामण्यायोग्यः स जातुचित् ।।
अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ है ? इतने में ही समझ लेना चाहिये कि मुनियों को, मुनिधर्म के अयोग्य पदार्थ का 'एक बाल के अग्रभाग का करोड़वां भाग भी कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥२४२॥ परिग्रहार्जनेतात्र, पराचिता पजायते । सस्याप्ते परमोरागो, रौनध्यानं च रक्षणे ॥२४३।। तन्नाशे शोककोपायाः, सर्व प्रादुर्भवन्ति भोः । तैश्च पापानि घोराणि, पापैर्दुगतयोऽखिलाः ।। तासु दुःखानि तीवारिण, लभन्ते संगिनः शठाः । इतिमत्वा बुधयः, संगः सर्वोऽपि सर्वथा ॥
अर्थ-इस संसार में परिग्रहको इकट्ठा करने में बड़ी चिता करनी पड़ती है; उसके प्राप्त होनेपर 'परम राग' उत्पन्न हो जाता है, उसकी रक्षा करने में 'रौद्रध्यान' प्रगट हो जाता है तथा उसके नाश होने पर 'क्रोध-शोक' आदि सब विकार उत्पन्न हो जाते हैं। उन क्रोधादिक विकारों से महा पाप उत्पन्न होते हैं। उन पापों से नरकादिक समस्त दुर्गतियां प्राप्त होती हैं और उन दुर्गतियों में परिग्रह रखने वाले वे मूर्ख तीव दुःखों को प्राप्त होते हैं। यही समझकर, बुद्धिमानों को सब तरह के परिग्रहों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ॥२४३-२४५॥ ग्रंधा येऽभ्यन्तराः, विश्वे दुस्त्याज्याः कातरां गिना। महायल्नेन तेत्याज्याः, कृत्सादोषविधायिनः ।।
अर्थ-अंतरंग परिग्रह कातर पुरुषों से कभी नहीं छोड़े जाते तथा वे अंतरंग परिग्रह अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं। इसलिये महान प्रयत्न करके उन सब परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिए ॥२४६।।