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मूलाधार प्रदीप ]
( ३५ )
[ प्रथम अधिकार
आत्मा से भिन्न हैं । मुनियों को इनमें रहने वाली मूर्च्छा के साथ-साथ मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक इन सबका त्याग कर देना चाहिये ।।२३२-२३३ ।।
मिम्यावं च प्रयोवेदा, रागा हास्यादयोऽषट् । चत्वारोऽपि कवाया हि चतुर्दश परिग्रहाः ॥ अम्मत हमें जब निबद्धा दुस्त्यजा बुधः । विश्वदोषाकरा हेयाः सर्वथा जीवतन्मषाः ॥ २३५॥
अर्थ - ( १ ) मिथ्यात्व ( २ ) स्त्रीवेद (३) पुवेद ( ४ ) नपुंसकवेद ( ५ ) राग (६) हास्य (७) प्ररति (८) शोक ( ६ ) भय (१०) जुगुप्सा ( ११ ) क्रोष (१२) मान (१३) माया (१४) लोभ ये चौदह अंतरंग परिग्रह कहलाते हैं। ये १४ परिग्रह 'जीव-निबद्ध' हैं अर्थात् जीव के साथ लगे हुए हैं और इसीलिये कठिनता से त्याग किये जाते हैं । ये जीव से तन्मय होकर रहते हैं और समस्त दोषों को उत्पन्न करने वाले हैं । इसलिये बुद्धिमानों को इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । ।।२३४-२३५।।
चेतनास्तेऽथवा दासी, दासोऽश्वादयो भुवि । मणिमुक्तासुव शुरू, गेहाद्या प्रचेतना ।।२३६।।
अर्थ - अथवा दासी, दास, गाय, घोड़ा आदि इस संसार में 'चेतन परिग्रह' कहलाते हैं तथा मोती, मणि, सुवर्ण, वस्त्र, घर नादि ' अचेतन परिग्रह' कहलाते हैं ॥२३६॥
चेतनाचेतना सर्व बाह्यासंगाः अधार्णवाः । ज्ञानसंयम शौचोप करणेन बिना बुधैः ।। २३७॥ न ह्याच स्वयं श्रामण्यायोग्य हि परस्यभोः । न दातव्या न कार्योऽनुमोदस्तद्ग्रहणं परः ॥ अर्थ – चेतन, अचेतन, बाह्य प्राभ्यंतर सब परिग्रह पापों के समुद्र हैं और मुनिधर्म के अयोग्य हैं; इसलिये ज्ञान, संयम और शौच के उपकरणों को छोड़कर बुद्धिमानों को बाकी के सब परिग्रहों का त्याग कर देना चाहिये; न तो उन्हें स्वयं ग्रहण करना चाहिये; न दूसरों को देना चाहिये और अन्य कोई ग्रहण करता हो तो उent अनुमोदना भी नहीं करनी चाहिये ।। मूर्द्धा तेषु न कर्त्तव्या, खतिः सर्वेनसां बुधः । यतो मूच्छेच सिद्धांते, संग ः प्रोक्तो गणाधिपः ।। अर्थ- बुद्धिमानोंको इन परिग्रहों में कभी ममत्व भी नहीं रखना चाहिये; क्योंकि
२३७-२३८ ।।
इनमें ममत्व रखना भी समस्त पापों को उत्पन्न करने वाला है; इसका भी कारण यह है कि भगवान् गणधर देवने सिद्धांत शास्त्रों में मूर्छा या ममत्व को ही 'परिग्रह' बतलाया है ॥२३६॥