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मूलाचार प्रदीप ]
[ प्रथम अधिकार देना, (३) स्त्रियों के श्रृंगार की कथा का भी त्याग कर देना (४) रसीले पौष्टिक आहार के सेवन का त्यागकर देना चाहिये (५) और स्त्रियोंके रहने, सोने, बैठने आदि के स्थान का भी सदा के लिये त्याग कर देना । ये पांच ब्रह्मचर्य व्रतको विशुद्ध करने वाली शुद्ध भावना हैं । मुनियों को अपना 'ब्रह्मचर्य' शुद्ध रखने के लिये अपने हृदयसे इन भावनाओं को कभी अलग नहीं करना चाहिये अर्थात् इनका चितवन सदा करते रहना चाहिये ॥२२६-२२८॥
बृह्मचर्य प्रतकी महिमानरसुरपति बंधस्वर्गसोपानमूतम् । सकलगुणसमुद्र, धीरवोरंनिषेव्यम् । शिवसुख शुभखानि, सर्वयानेन पूतम् । भजप्त गतविकार, ब्रह्मचर्य सदाा ॥२२६।।
अर्थ-यह ब्रह्मचर्य महावत, इन्द्र, नरेंद्र आदि सबके द्वारा वंदनीय है; स्वर्ग के लिये सीढी के समान है। समस्त सद्गुणों का समुद्र है; धीर वीर पुरुष ही इसका सेवन कर सकते हैं। अत्यन्त शुभ ऐसे मोक्ष सुख की यह खान है। अत्यन्त पवित्र है और विकार रहित है । इसलिये पूज्य पुरुषों को बड़े प्रयत्नसे सदा इसका पालन करते रहना चाहिये ।।२२६॥
परिग्रह महामनका स्वरूपस्थजन्ते निखिला यत्र, बाहान्तः स्था:परिग्रहाः । जोधाबद्धनिबद्धाश्चसमंतान मूच्छंया बुधैः ।। कृत-कारित-संकल्प मनोवाक्कायकर्मभिः । तत्प्रणीतं जिन; पूज्य , माकिचन्यमहानतम् ।।२३१।।
अर्थ-जहां पर बुद्धिमान लोग, शरीर, कषायावि संसारी जीवों के साथ, रहने वाले और वस्त्रालंकार प्रादि जीव के साथ न रहने वाले, समस्त परिग्रहों का त्याग कर देते हैं तथा मन-वचन-काय और कृत-कारिस अनुमोदना से उन परिग्रहों में होने वाली मूर्छा व ममत्वका भी त्याग कर देते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव ने पूज्य 'आकिमन्य' महावत कहा है ॥२३०-२३१॥
क्षेत्र वास्तु धन धान्य, द्विपदं पशुसंचयम् । प्रासनं शयनं वस्त्र, भार बाह्याः परिग्रहाः ॥२३२॥ दशामी सर्वथा त्याज्याः, पृथग्भूतानिणात्मनः। जीवाबद्धास्त्रिशुध्यात्र, यतिभिः सहमूच्छया ।।
अर्थ-(१) खेत (२) घर (३) घन (४) धान्य (५) दास (६) पशु (७) आसन (5) शयन (C) वस्त्र और (१०) बर्शन ये पस प्रकार के बाहा परिग्रह कहलाते हैं। परिग्रह 'जीचाबद्ध' या जीप से भिन्न कहलाते हैं क्योंकि ये सब