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मूलाचार प्रदीप
[ प्रथम अधिकार तुषाधा सबलाहराः, सुस्वादा मोदकावयः । कामाग्निदीपिका पाहा नपचित् वहाकाशिभिः ।
अर्थ-ब्रह्मचर्यके रक्षा करने की इच्छा करने वाले पुरुषों को न तो बल देने वाला बूध आदि का पाहार करना चाहिये, न लड्डू आदि स्वादिष्ट पदार्थों का आहार करना चाहिये, क्योंकि ये सब पदार्थ कामरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाले हैं ।२०६। यथा तुरणाविलंपोगः, प्रादुर्भवेदगृहेऽनालः । तथा कार्य च कामाग्निः, सबलाहार सेवनेः ॥२०॥
अर्थ-जिसप्रकार घास फूसके संयोग से घर में अग्नि उत्पन्न हो जातो है उसी प्रकार 'पौष्टिक आहार' के सेवन करने से शरीर में 'कामाग्नि' उत्पन्न हो जाती है ।२०६।। अन्नपानासना, श्व, रक्षरखीयो न शर्मणा । कामलामा काम गरिजानिशुद्धये ॥
अर्थ---यह शरीर 'काम रूपी सर्प का घर है' इसलिये अपने ब्रह्मचर्य को विशुद्ध रखने के लिये, अन्न, पान, आसन आदि से कभी इसकी रक्षा तो करनी चाहिये किन्तु इंद्रिय भोगों के लिये नहीं करनी चाहिये ॥२१॥ यतः कामप्रकोपेन, शरीरसुखकोक्षिणाम् । साधं सर्ववतैः शीन, ब्रह्मचर्य पलायते ॥२१॥
अर्थ--इसका भी कारण यह है कि 'शरीर के सुख को इच्छा' करने वालों के शरीर में 'कामका प्रकोप उत्पन्न हो जाता है और फिर समस्त बसों के साथ उसका ब्राह्मचर्य भी शीघ्र ही भाप जाता है ।।२११।। मवेति सर्वथा त्याज्यं, वपुः सौख्यं विशन्नवत् । सबलान मुखाद्यग, संस्कारं शयनादि च ॥
अर्थ-यही समझकर शरीरके सुख को 'विष मिले हए अनके समान' सर्वथा त्याग कर देना चाहिये तथा इसी प्रकार 'पौष्टिक श्राहार' मुख प्रादि, शरीर के अंगों का संस्कार' और 'अधिक शयन' आदि का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।।२१२॥ निरीक्षणं न हलव्य, स्त्रीणां हाऽमिते मुखे । यतस्तहलोकमावते, जायन्सेऽमर्थकारिणः ॥२१॥
अर्थ-हाव भावसे भरे हुये, स्त्रियों के मुख को, कभी नहीं देखना चाहिये क्योंकि स्त्रियों का मुख देखने से नीचे लिखे अनुसार अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं ॥२१३॥
स्त्रियों का मुख देखने उत्पन्न अनर्थ - 'दष्टिपातो' भवेदावो, 'प्पामुहाति मनस्ततः' 'सरागः' कुरुते पश्चात्, तस्कघागुणकीर्तनम् ।।