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मूलाचार प्रदीप ] { २२ ।
प्रथम अधिकार न केवलं बुङ्करस्याख्यः, संसर्गो योषितामिह । किन्तु निःशीलसां च, संपो लोकद्वयांतकृत् ।
अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों का कार्य, केवल स्त्रियों के संसर्ग के त्याग करने से हो पूर्ण नहीं होता, किन्तु उन्हें शील रहित पुरुषों के संसर्ग का भी त्याग कर देना चाहिये क्योंकि शील रहित पुरुषों का संसर्ग भी दोनों लोकों को नाश करने वाला है ।।१९५॥ ब्रहाचयं च सर्वेषां, बताना शुद्धिकारणम् । ब्रह्मचर्यविनाशेन, सर्व नश्यन्ति सदवताः ।।१९६it
अर्थ-ग्रह ब्रह्मचर्य, समस्त वतों की शुद्धि का कारण है तथा इस ब्रह्मचर्य का नाश होने से समस्त श्रेष्ठ वृत नष्ट हो जाते हैं ॥१९६३ बह्मचर्यच्युत श्वेव, सर्वन्न चापमान्यते। मुनिभिः सुजनैः प्राणी, ईहामुत्रति दुखभाक् ।।१९७६
__ अर्थ-जो प्राणो ब्रह्मचर्यसे च्युत हो जाता है, उसका अपमान, मुनि वा अन्य सज्जन सर्वत्र करते हैं तथा वह प्राणो इस लोक और परलोक दोनों लोकों में दुःख पाता है ॥१६॥ गौर वर्मावत कान्त, वस्त्राभरणमंडित्तम् । स्त्रीरूपं त्वं मुने वीक्ष्य, लस्यान्तःस्थ विचारय ।।
अर्थ-हे मुनिराज, गौर वर्ण के चमड़े से ढके हुये, अत्यन्त मनोहर और वस्त्राभूषणों से सुशोभित ऐसे स्त्रीके रूपको देखकर, तू उसके भीतर भरे हुए पदार्थों का चितवन कर ॥१६८।। अहो! पणास्पदं निन्ध, लालाम्बुकर्वमीकृतम् । श्लेष्मागारं च दुर्गंध, स्त्रीमुख कः प्रशस्यते ।।
अर्थ-देखो, स्त्रियों का मुख, अत्यंत घृणित और निदनीय है। युक के पानी की बनी हुई कीचड़ से वह भर रहा है, कफ का वह घर है और अत्यन्त दुर्गधमय है। भला ऐसे स्त्री के मुखको प्रशंसा कहां की जा सकती है अर्थात् कहीं नहीं ।।१६६॥ मांसपिडी कुचौ स्त्रीणां, धातुओरिणतसंमृतौ । विष्ठादिनिचितं चास्ति, पंजर जठरं परम् ।।
अर्थ-और देखो, स्त्रियों के कुच मांसके पिण्ड हैं; धातु और रुधिर से भरे हुए हैं । इसीप्रकार स्त्रियों का उवर विष्ठा से भरा हुआ है और हड्डी पसलियों से परिपूर्ण है ।।२००॥ सवन् मूत्रादि दुर्गघ, योनिरंध्र धूणास्पदं । श्वभ्रागारमिवासार, कथं स्याद् रतये सताम् ॥
अर्थ-स्त्रियों की योनिसे, सदा रुधिर, मूत्र बहता रहता है। इसलिये वह