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मूलाचार प्रदीप
[प्रथम अधिकार अर्थ-शुद्ध हृदय को धारण करने वाले, वीतरागी पुरुष अपने राग रूप परिणामों का सर्वया त्याग कर कन्या को अपनी पुत्री के समान, मानते हैं । यौयनवती स्त्रीको अपनी भगिनी के समान मानते हैं और वृद्धा स्त्रीको अपनी माता के समान मानते हैं; इसप्रकार जो निर्मल ब्रह्मचर्यको धारण करते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव 'ब्रह्मचर्य महावत' कहते हैं ॥१८०-१८१॥ स्त्री तिरश्ची ब देवीमाः कस्यन्ते त्रिविधा स्त्रियः । मनोवचनकायस्ताः, प्रत्येक गुरिणता भुवि ।। नवति विकल्पाः स्युरब्रह्महेसवोऽखिलान् । परिहत्य विशुध्यातान नवधा ब्रह्मरक्ष्यते ।।१३।।
___ अर्थ---संसार में (१) मनुष्यनी (२) तिर्यचनी और (३) देवी ये तीन प्रकार की स्त्रियां हैं। यदि इन तीनों को मन, वचन, काय इन तीनों से सेवन करने की इच्छा की जाय तो 'अब्रह्मचर्य' के ह भेद हो जाते हैं। इसलिये मन, बचन, काय की शुद्धता पूर्वक इन सबका त्याग कर नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिये ॥१८२-१८३॥ मनो चाक काययोः, कुतकारितानुमोदनैः । प्रत्येक गुरिणता रामा, नवभेदा भवंतिया ।।१४।। सर्वथा वा मनः कायान्, कृतादीनिरिराध्य च । नवधा ब्रह्मचर्य हि, पालयंत जितेन्द्रियाः ॥
अर्थ----अथवा मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना को सर्वथा रोककर, जितेन्द्रिय पुरुषों को ६ प्रकार से पूर्ण ब्रह्मचर्य को पालना चाहिये क्योंकि प्रत्येक स्त्री के संबंध से ६ भेद हो सकते हैं ।।१८४-१९५॥ स्त्री श्रगारकथालापाः, कामोद्रेक निबंधनाः। न श्रोतव्या न कर्तव्या, त्रिशुध्या ब्रह्मचारिभिः ।।
___ अर्थ - स्त्रियों के श्रृंगार को कथा कहना भी कामोद्रेकका कारण है इसलिए ब्रह्मचारियों को अपने मन वचन कायको शुद्ध रखकर स्त्रियों के झुगार की कथा न कभी सुननी चाहिये और न कभी कहनी चाहिये ॥१८६।। बिलासकार श्रगार, गीतनृत्यकलाविकान् । योषितां नैव पश्यप्ति, बहून् रागारान बुषाः ।।
अर्थ-स्त्रियों के विलास, हास, श्रृंगार, गीत, नृत्य, कला आदि सम बहुत ही राग उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिये बुद्धिमान् लोग इनको कभी नहीं देखते हैं ।१८७। क्षणमात्रं न कर्त्तव्यं, संसर्ग योषितां क्वचित् । कसंककारिणं निच, ब्रह्मचर्यपरायणः ।।१८८।।
अर्थ-स्त्रियों का संसर्ग कलंक लगाने वाला, अत्यंत निच है इसलिये ब्रह्म