________________
मूलाचार प्रदीप ]
( २५ )
[प्रथम अधिकार छटने वाला कलंक लग जाता है तथा वह कलंक उन मूखोंके समस्त कुलमें लग जाता है और क्षण भर में ही उनके प्राणों में संदेह हो जाता है ॥१६७॥ अहंतां याष्टधा पूजा, केनचिरोमता कृता । तामावतेऽत्रयो लुब्धो, महाचौरः स कथ्यते ॥१६८।।
___ अर्थ-किसी भी बुद्धिमान के द्वारा, जो अष्टनन्य से भगवान् अरहतदेवकी पूजा की जाती है। उस बढ़ी हुई पूजा द्रव्यको जो ग्रहण करता है उसे भी लोभी और महा चोर समझना चाहिये ॥१६८।। श्री जिनेन्द्रमुखोत्पन्न, शास्त्रेकेनापि पूजिते । तत्पूजावस्तु नावेयं, जात्यचौर्यव्रताप्तये ॥१६॥
__ अर्थ-जिस किसी भी पुरुष ने भगवान जिनेन्द्रदेव के मुख से उत्पन्न हुई सरस्वती की पूजा की है और उसमें जो द्रव्य चढ़ाया है। यह भी प्रचौर्य व्रत पालन करने के लिये कभी नहीं लेना चाहिये ॥१६६।।। रत्नन्नयं समुच्चार्य, गुरुपादौ प्रपूजितौ । अर्थथा सान चादेया, सद्व्या जातुचिज्जनः ।।१७०॥
अर्थ-जिस द्रव्यसे रत्नत्रय का उच्चारण करते हुए आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की पूजा की है। वह द्रव्य भी कभी नहीं लेना चाहिये ।।१७।। किमिव बहनोक्त न, निर्माल्यं कुरिताकरम् । देवशास्त्रगुरूणां च, नावेयं धर्मकामिभिः ॥१७१॥
अर्थ- बहत कहने से क्या लाभ है थोड़े से में इतना समझ लेना चाहिये कि देव, शास्त्र, गुरुओं पर चढ़ाया हुआ निर्माल्य द्रव्य धर्मात्मा पुरुषों को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि उसको ग्रहण करनेसे अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न होते हैं ।१७१। यदि स्वर्ग बोल, पूजा कहिद्ज्ञान योगिनाम् । तन्निर्माल्यात चित्ताना, श्वभ्र केन निवार्यते ।।
यवि देव शास्त्र गुरु की पूजा करनेवाला स्वर्ग को जाता है तो उस निर्माल्य द्रव्यको ग्रहण करने वाले को नरक में जाने से कौन रोक सकता है अर्थात् कोई नहीं ॥१७२॥ प्रवत्तमथवा दत्तं, यत्संयमादि हानिकृत् । तत्सर्वथा न च प्राह्य, प्राणः कंठगतैरपि ॥१७३।।
अर्थ-जो द्रव्य दिया हो या न दिया हो; यदि वह संयम की हानि करने वाला है तो कंठगत प्राण होने पर भी मुनियों को कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये । ॥१७३॥ इति मत्वा न चारेयं, संयतै बन्तशुद्धये । अवत्तं तृणमात्र भो, का कमा पर वस्तुषु ॥१७४।।