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मूलाचार प्रदीप ]
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[प्रथम अधिकार मर्थ-यही समझकर मुनियों को अपने दांत, शुद्ध करने के लिये बिना दिया हुआ तृण भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। फिर भला पर पदार्थों की तो बात ही क्या. है ॥१७४।।
अचौर्य व्रतकी सफलतापरस्वं येन गृह ति, ग्राहयंति न जातुचित् । गृह्णन्तं नानुमन्यन्ते, वाणुमात्रेतर बुधाः ।।१७।। कालाहिभिव कायेन, वचसा मनसा भुवि । संपूर्ण जायते तेषां, ज्ञानिनां तन्महावतम् ।।१७६।।
अर्थ-जो बुद्धिमान पुरुष अणु मात्र या बहुत सी पर वस्तु को काले सर्पके समान समझकर, मन-वचन-काय से न तो स्वयं ग्रहण करते हैं; न कभी दूसरों से ग्रहण कराते हैं और न कभी ग्रहण करने वाले को अनुमोदना ही करते हैं; उन ज्ञानी पुरुषों के इस संसार में तीसरा अचौर्य महाव्रत पूर्ण प्रकट होता हैं ।।१७५-१७६।।
अचौर्यवतको ५ भावनायाचाख्या समनुज्ञापना, नात्मभाव एव हि । तयव निरवद्य, प्रति सेवनं सुभावनाः ॥१७॥ सधम्र्यु पकरस्यानु वीची सेवन विमाः । अस्तेयवत शुद्धयर्थ, भाषनीयाः सुभाषनाः ११७८।।
अर्थ-(१) कभी किसी से याचना नहीं करना (२) किसीको कुछ प्राशा न देना (३) किसी भी पदार्थ से ममत्व नहीं रखना (४) सदा निर्दोष पदार्थ का सेवन करना (५) और साधर्मी पुरुषों के साथ शास्त्रानुकूल बर्ताव करना ये पांच अचौर्य महावत को शुद्ध रखनेवाली श्रेष्ठ भावनायें हैं ।।१७७-१७८।।
अखिलविभवहेतु, लोभमातंगसिंहम् । शिवशुभगतिमाग, सारमस्तेयसंगम् ॥ व्रतवरमपदोषं, मुस्तिकामा शिवाप्त्यै, भजत परमयत्ना, लोभशत्रु मिहस्य ।।१७६।।
अर्थ-यह अचौर्य महावत, समस्त विभूतियों का कारण है, लोभ रूपो हाथी को मारने के लिये सिंह के समान है, मोक्ष और शुभगति का मार्ग है, समस्त व्रतों में सार है, सब व्रतों में उत्तम है और समस्त दोषों से रहित है। इसलिये मोक्षको इच्छा करने वाले को लोभ रूपी शनको मारकर बड़े प्रयत्न से, केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिये, इस महानत का पालन करना चाहिये ॥१७॥
ब्रह्मचर्य महानत का स्वरूपस्वात्मजेव सुकन्या, यौवनस्या भगिनीव छ । वृद्धा नारी मिजाम्देव, दृश्यते या विरागिभिः ॥ सरागपरिणामावीन्, त्यक्त्वा शुभाशयः सदा । निर्मलं तजिनः प्रोक्तं, ब्रह्मचर्य महाव्रतं ॥