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मुलाचार प्रदीप ]
( २३ )
[ प्रथम अधिकार
विज्ञायेति न वक्तव्यं पविच वितथं वचः । परपीडाकरं वः, सत्सुकार्याविकोटियु ।।१५४।। अर्थ-- यही समझकर करोड़ों श्रेष्ठ और अच्छे कार्य होने पर भी, चतुर पुरुषों को पोड़ा उत्पन्न करने वाले, असत्य वचन कभी नहीं कहने चाहिये ॥ १५४ ॥ अमिष्टं यद्वाक्यं परुषं कर्णदुखदम् । म वायं तत्परस्यैतन्मूलं धर्मव्रतात्मनाम् ।।१५५ || अर्थ- जो वचन दूसरों की अनिष्ट हो; जो कठोर हो और कानों को दुःख येने वाले हों ऐसे वचन धर्मात्मा और पक्षी पुरुषों को कभी नहीं कहने १५५ ॥
मौन की उपयोगिता
मनमेोचितं सारं सर्वालयनिरोधकम् । मुनीनां समया जाते, कार्य धर्मनिबंषिनि ॥ १५६ ॥ वदन्तु मुनयः सत्यं मितं स्वल्पाक्षरं शुभम् । बह्नर्थ धर्म संसिध्यं व्यक्तं चागमसंभवम् ।। १५७ ।। अर्थ- प्रायः मुनियों को मौन धारण करना चाहिये, श्राव को रोकने वाला है और सारभूत है। यदि किसी धर्म पड़े तो मुनियों को धर्म की सिद्धि के लिये सत्य, परिमित, बहुत से अर्थ को सूचित करने वाला, व्यक्त और श्रागम के
।। १५६-१५७।।
यह मौन ही समस्त कार्य के लिये बोलना शुभ, थोड़े से अक्षरों में अनुकूल बोलना चाहिये
सत्य महाव्रत की ५ भावना
कोलोभत्यागाः हास्यवर्जनमेव च । सामस्त्येन विचार्योच्चैरागभोक्तसुभावरणम् ॥ १४८ ॥ इमा: सद्भावना: पंच, भाषयंतु तपोधनाः । सत्यव्रतविशुध्यर्थं प्रत्यहं व्रतकारिणीः ।। १५६ ॥
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श्रर्थ - (१) क्रोध का त्याग (२) लोभका त्याग (३) भय का त्याग ( ४ ) हास्य का त्याग और (५) सब बातों का विचार कर आगम के अनुसार भाषण करना ये पांच इस सत्य महाव्रत की भावना हैं। ये भावना हो व्रतों को स्थिर रखती हैं इसलिये मुनियों को अपना सत्यव्रत विशुद्ध रखने के लिये प्रतिदिन इन भावनाओं का चितवन करते रहना चाहिये ।। १५८- १५६॥
सत्यव्रत की महिमा उपसंहार रूपमें -
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serene विधातारं महाधर्मबीजम् । शिवसुरगति हेतु विश्वकीर्यादिहानिम् 11 दुरिततिमिरभा सर्व कल्याणमूलम् । मिथमपगतदोषाः सवतं पालयन्तु ।।१६० ।।
अर्थ - यह सत्य महाव्रत समस्त श्रुतज्ञानको देनेवाला है, धर्म का श्रेष्ठ बोज