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मूलाचार प्रदीप]
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[ प्रथम अधिकार त्याग कर, मधुर एवं हित करने वाले और कानों को सुख देने वाले अमन कहने चाहिये ॥१४६॥ सत्ये च मधुरे वाक्ये, जगत्पूज्य शुभाकरे । सस्यसत्यं जगनिय, वदेशकः कदकं सुधीः ॥१४७।।
अर्थ---सत्य और मधुर बचन जगत्पूज्य हैं और शुभको सान हैं; फिर भला ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो ऐसे वचनों को छोड़कर असत्य, जगत् में निध और कड़वे वचनों को कहेगा अर्थात् कोई नहीं ॥१७॥ इन्त्रादयो न प्रत्यूह, कस्तुं शक्ताश्च धीमताम् । खादितु रसाचा:, सत्यसीमावलं बिनाम् ॥
अर्थ- सत्य वचन कहने वाले, बुद्धिमानों के कार्यों में, इन्द्र भी कोई विघ्न माहीं कर सकता; तथा भर सादिक भी उसे नहीं काट सकते ॥१४६।। अग्नयो न दहन्यत्र, नागा सादंति जानु न । सुसत्यवादिनो नोके. प्रत्येक्षेति दृश्यते ॥१४६।।
अर्थ-- इस संसार में यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि सत्यवादी लोगों को न तो अग्नि जलाती है और न सर्प हो काटते हैं ॥१४॥ असत्यवादिनस्तेऽपि, म सहतेऽनलावमः । मुखरोगादयः सर्ने, जायन्तेऽनसभाषिणाम् ।।१५।।
अर्थ-वे अग्नि, सर्प आदि असत्यवादियों को कभी सहन नहीं कर सकते; प्रसत्यवादियों के मुख रोग या कुष्ट आदि समस्त रोग उत्पन्न हो जाते हैं ।१५०॥ मषाचाबोरथपापेन, मूर्खता जायते नणाम् । होयते परमा बुद्धि रकीति: स्पाजगत्त्रये ॥१५॥
अर्थ-मिश्या भाषण से उत्पन्न हुए पाप के द्वारा मनुष्यों में मूर्खता उत्पन्न होती है । श्रेष्ठ बुद्धि भी नष्ट हो जाती है और तीनों लोकों में अपकीत्ति फैल जाती हैं ॥१५॥ गृथभक्षरणमेवाहो, वरं वा विषभक्षणम् । नासत्यभाषणं धर्म, विरोधि वा शुभाकरम् ॥१५२॥
अर्थ--यह असत्य भाषण, धर्म का विरोधी है और दुर्गतियों को देने वाला है। इसलिये विष खा लेना अच्छा ; अथवा विष्ठा खा लेना अच्छा; परन्तु असत्य भाषण करना अच्छा नहीं ।।१५२॥ विरंप्रवजितो योगी, महान सतपोऽकितः । यः सोप्मत्र मुषावादात्, नियः स्पारंत्यजादपि ।
अर्थ-जो मुनि चिरकाल का दीक्षित है, महाधुतज्ञानी है तथा महा तपस्वी है; वह भी अलत्य भाषण करने से चांडाल से भी मिद्य समझा जाता है ।।१५३॥