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मूलाचार प्रदीप ]
( २० )
[प्रथम अधिकार वचसा येन जाधेत, बाधा पौडा छ देहिनाम् । तत्सत्यमपि लोकेऽस्मिन् न सत्यं गवितं बुधैः ।।
अर्थ-जिन वचनों से जीवों को पीडा या बाधा पहुंचती हो, ऐसे वचन यद्यपि सत्य हों तथापि बुद्धिमान लोग इस संसार में ऐसे वचनों को 'सत्य' कभी नहीं कहते ॥१३३॥ असत्यमपि सत्यं स्यात्, परार्थन शुभप्रदम् । जीवरक्षा हिलाद्यर्थ, वचो व तं वचिद् बुधैः ।।
अर्थ-बुद्धिमान् मनुष्यों को जीवोंकी रक्षा और किसी प्रात्माका हित करने के लिये कभी कभी 'असत्य वचन' भी कहने पड़ते हैं। परन्तु ऐसे असत्य वचन दूसरे का कल्याण करने के कारण सत्य और शुभप्रद या कल्याण करने वाले ही माने जाते है ॥१३४॥ मेन संतप्यते लोकः, क्रोषलोभादयोऽखिलाः । वषबंधाग्यपीटाधाः, स्मरादीन्द्रिय विद्विषः ।। जायन्ते बोत्कटा: पुसा, जातु वाक्यं न तद्वषः । रागषमवोन्मादः, प्राररानाशेऽपि संयतः ।।
अर्थ-जिन वचनों से लोगों को संताप हो; क्रोध, लोभादि विकार उत्पन्न हो; वध, बंध या दूसरों को पीड़ा हो; काम आवि इंद्रियों के विकार उत्पन्न हो; तीव्रता बढ़ जाय ऐसे राग, द्वेष, मद और उन्माद से उत्पन्न होने वाले बचन कभी नहीं कहने चाहिये । मुनियों को अपने प्रारण नष्ट होने पर भी ऐसे वचन कभी नहीं कहने चाहिये ॥१३५-१३६।। स्थिरं जायेस बराम्यं, बद्धन्ते सद्गुणाः सताम् । विलीयन्ते च रागाधाः, साम्यन्त्यत्र स्मरादयः।। बुर्ध्यानानि च येनाशु, शुभो भावोऽस्ति धोधनः । वक्तव्यं तद्वचो मिष्टं, धर्मतत्त्वादिदर्शकम् ।।
___अर्थ-जिन वचनों से वैराग्य की स्थिरता हो; सज्जनों के गुण वृद्धि को प्राप्त होते रहें; राग, द्वेष नष्ट हो जाय, कामाधिक विकार तथा प्रारी, रौद्र, ध्यान नष्ट हो जाय तथा जिन वचनों से शुभ भाव प्रगट हो जाय, जो वचन मिष्ट हों और धर्म या तत्वों का उपदेश देने वाले हों; ऐसे ही वचन, बुद्धिमानों को बोलने चाहिये ॥१३७-१३॥ उक्तनान्येनमेऽन्येषां, शुभं किंवाऽशुभं भवेत् । यशोऽथवाऽअयशः स्वास्थ्य, श्रेयोश्रेयोच संप्रति ।। पूर्व वित्त विचार्यति, पश्चाद्ववंतु योगिन । शश्वद्धर्मोपदेशाय, स्वांग मानिवितं वचः ।।१४०।।
___ अर्थ-मुनियों को बोलने के पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि इन वचनोंके कहने से मेरा या दूसरे का शुभ होगा या अशुभ होगा, यश होगा या अपयश