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मूलाचार प्रदीप]
[प्रथम अधिकार अर्थ-सत्य और अनुभय वचन संसार का कल्याण करनेवाले हैं। पापरहित हैं, धर्मकी वृद्धि करनेवाले हैं। कहने योग्य हैं और सारभूत हैं इसलिये मुनियों को ये हो दो प्रकार के वचन कहने चाहिये ।। १२६।।। प्रियं हितं वच, किंचित्परं किंचिद्धिताप्रियं । अप्रिया हतमेवान्यच्चतुति वचो नरणाम् ।।१२७।1
अर्थ--कोई वचन प्रिय होकर भी हित करने वाले होते हैं। कोई हित करनेवाले होकर भी अप्रिय होते हैं तथा कोई प्रिय भी नहीं होते और हित करनेवाले भी नहीं होते, इन तीनों के अतिरिक्त जो वचन हैं वे सब चौथे भेद में शामिल हैं।
॥१२७।।
अप्रियाहितमेकं, स्थान्ययोः पापदुःखदम् । यत्नेन परिहर्तव्यं, संयतथसिद्धये ॥१२॥
अर्थ- इनमें से अप्रिय और अहित करने वाले वचन अपने और दूसरे दोनों को दुःख देने वाले तथा पाप उत्पन्न करने वाले हैं इसलिये मुनियों को धर्मकी सिद्धिके लिये ऐसे वचन बोलने का प्रयत्न पूर्वक त्याग कर देना चाहिये ।।१२८॥ क्वचिद् धर्मयशाद ग्राह्य', हिताप्रियं महात्मभिः । वचनं धर्मसिध्यमं, विपाके केवलं हितम् ।।
अर्थ- महात्मा लोग कभी-२ धर्म के निमित्तसे होने वाले हितकारी किन्तु अप्रिय वचनों को धर्मको सिद्धि करने वाले और ग्रहण करने योग्य समझते हैं क्योंकि ऐसे वचनों का अंतिम फल आत्मा का हित ही होता है ॥१२६॥ हितं प्रियं च वक्तव्यं, यत्रः सर्वार्थसिद्धये । प्रस्पष्ट निर्मलं दक्ष धर्मोपदेशनाय च ॥१३॥
अर्थ-चतुर पुरुषों को समस्त पदार्थों को सिद्धि के लिये और धर्म का उपदेश देनेके लिये निर्मल और स्पष्ट ऐसे हितकारी प्रिय वचन हो कहने चाहिये ॥१३०॥ चौरस्य चौर एवायं, ह्यषस्यांगोत्र पापिनः । पापी बंडस्य शो, रंडाया रडेति दुर्वषः ॥१३॥
अर्थ-चोर को चोर कहना, अंधे को बंधा कहमा, पापो को पापो कहना, नसक को नपुसक कहना और रांड को रांड कहना, "दुर्वचन' कहलाते हैं ॥१३१॥ सत्यं चापि न वक्तव्यं, परं शोधाविकाररणम् । निष्ठुरं मनुकं निध', यत्रा पीडाकरं नृणाम् ।।
अर्थ-यधपि ये वचन सत्य हैं। तथापि दूसरों को क्रोध उत्पन्न करने वाले हैं, इसलिये ऐसे वचन कभी नहीं कहने चाहिये। इनके अतिरिक्त कठोर, कडवे, निदनीय और मनुष्योंको दुःख उत्पन्न करनेवाले वचन भी कभी नहीं कहने चाहिये ॥१३२॥