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मूलाचार प्रदीप]
[प्रथम अधिकार भावितं भावनाभिश्च, प्रथम सारं महाबलं । प्रारोहति परां कोटिं, शुद्धि मुक्तिकरं सताम् ।।
अर्थ-सज्जनोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली और सारभूत यह अहिंसा महावत इन भावनाओं के चितवन करने से सर्वोत्तम शुद्धता को प्राप्त होता है ।।१२०॥
अहिंसा व्रतकी सार्थकता उपसंहार रूप में-- असमगुण निधानं, स्वर्गमोक्षकहेतुम् । अतसकलसुमूलं, तीर्थनानिषेव्यम् । अभयकरमपापं, सर्वपस्नेन वक्षाः, भजत शिवसुखापत्य, ह्यादिम सव्रतं भो ॥१२१।।
अर्थ-यह अहिंसा महानत, सर्वोत्तम गुणों का निधान है; स्वर्ग मोक्ष का कारण है, समस्त पत्तों का मूल है, भगवान् तीर्थकर परमदेव के द्वारा भी सेवन करने योग्य है तथा समस्त जीवों को अभय देनेवाला है और पापों से सर्वथा रहित है । इसलिये हे चतुर पुरुषों ! मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये, सब तरह के प्रयत्न कर इस महावत का पालन करो ॥१२१।।
द्वितीय सत्य महाबल का वर्णनसध्य हितं मितं सारं, जिनसूत्रानुगं शुभम् । निष्पापं करणाकांत, पूयते यन्मुनीश्वरे ॥१२२॥ धर्मशानोपरेशाय, राग षादिरगम् । वचनं श्री जिनैः प्रोक्तं, तद्वितीय महावतम् ।।१२३।।
अर्थ-मुनिराज जो धर्म और ज्ञानके उपदेश के लिये रागद्वष रहित, यथार्थ हित करने वाले परिमित सारभूत, जिन शास्त्रों के अनुसार शुभ, पाप रहित, और करुणा से भरे हुए जो वचन कहते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव दूसरा सत्य महावत कहते हैं ।।१२२-१२३॥ बचः सस्यमसत्यं छो, भयं ह्यनुभयं परम् । चतुर्षेति गणाधोशे, रुषतं वचन मंजसा ॥१२॥
अर्थ-भगवान् गणधर देवों ने वचन के चार भेद बतलाये हैं-(१) सत्यवचन (२) असत्यवचन (३) उभयवचन और (४) अनुभयवचन ॥१२४।। असत्योभयनामात्र, द्विधा वाक्यं शुभालिगम् । सर्वपापकर स्याज्यं, दूरती वृतकामिभिः ॥१२५।।
अर्थ- इनमें से (१) असत्य और (२) उभय दोनों प्रकार के वचन अशुभ हैं और समस्त पापों के करने वाले हैं इसलिये वृत धारण करने को इच्छा करनेवालों को इन दोनों को दूर से ही त्याग देना चाहिये ।।१२५।।। सत्यानुभयसवाणी, जगच्छर्म विधायिनी । निष्पापा धर्मदा चाच्या, सारा धर्माय योगिभिः ।।