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भूलाचार प्रदीप
[ प्रथम अधिकार सिवाय, अन्य कोई महावती नहीं हो सकता ॥६६॥ यतो जीवे मृते वा न, कर्मबंधः पदे पदे । प्रयत्नवारिणा नूनं, व्रतभंगोऽशुभा गतिः ॥१०॥
___ अर्थ-इसका भी कारण यह है कि जो मुनि यत्नाचारका पालन नहीं करता उससे जोब मरे या न मरे; फिर भी उसके क्षण क्षरणमें कर्मों का बंध होता ही है। इसके सिवाय, उनके वतों का भंग होता है और उससे अशुभ गति की प्राप्ति होती है ॥१०॥ वञ्चिन्मलेप्यहो जीवोयत्नानारिमुनीशिताम् । न बंध कर्मणां कितु, शुद्धिः स्थाद्योगयुद्धितः ।।
अर्थ-जो मुनि, अपनी प्रवृत्ति यत्नाचार पूर्वक करते हैं उनसे यदि कोई जीच मर भी जाय; तो भी उनके कर्मोका बंध नहीं होता तथा उनके मन-वचन-काय की शुद्धि होने से उनके प्रात्माको शुद्धि और बढ़ जाती है ॥१०१॥ तस्माद् व्रताथिनो रक्षा , यत्नं कुर्वन्तु सर्वथा । सर्वजीच दयासिद्धर्थ, विशुध्या सवताय च ।।
___ अर्थ---इसलिये अपने बतों की रक्षा को इच्छा करने वाले चतुर मुनियोंको मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक अपने श्रेष्ठ व्रतोंकी रक्षाके लिये और समस्त जीवोंको दया पालन करने के लिये पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये ।।१०२॥
अहिमा का गौरव अहिंसा जननी प्रोक्ता, सर्वेषां च व्रतात्मनाम् । वग्ज्ञानवृत्तरत्नाना, खनी विश्व हितकरा ।१०३।
अर्थ- भगवान जिनेन्द्रदेव ने इस अहिंसा को समस्त व्रतों को मासा बतताई है और समस्त रत्नत्रयको खान बतलाई है तथा समस्त जीवों का हिल करने वाली बत्तलाई है ॥१०३।। सूत्राशरेण तिष्ठति, बाम हारावयो यथा । कुपाधारेण सर्वे च योगिनां सदगुरणास्तथा ॥१४॥
अर्थ-जिसप्रकार सूतकी गांठसे बनने वाले हार सूत के ही प्राधार से ठहर सकते हैं उसी प्रकार मुनियों के समस्त सद्गुण जीवोंको कृपा के आधार से हो ठहरते हैं ॥१०४॥ शेषव्रतसमित्यावोन, अवन्ति श्री जिनाधिपाः । प्रायवतपिशुध्यर्थ, केवलं च तपः क्रिया ।१०।।
अर्थ-- इस अहिंसा महावत के अतिरिक्त जितने भी प्रत, समिति और तपरचरण प्रावि हैं वे सब केवल एक इसी अहिंसा महाव्रतको विशुद्धिके लिये ही भगवान्