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मूलाचार प्रदीप]
( १४ )
[प्रथम अधिकार अर्थ-शानियों को चलने में बैठने में शय्यासन करने में रात्रि वा दिन में कोमल पीछी से वा देखकर जीवों पर सर्वथा दया करनी चाहिये ।।६।। वस कायाश्च ये ओवा वसकायं हि ये श्रिताः । बसकायसमारंभा रोषां वाधा वधोऽथवा ॥१४॥
अर्थ-प्रस कायिक जीनोंका समारंभ करने से (वस जोध विशिष्ट वस्तुओं को काम में लाने से) बस जीवों को और उस जीवोंके आश्रित रहने वाले जीवों की बाधा अथवा उनका वध अवश्य होता है ॥१४॥ तसमास व्रससमारंभी, द्विधा योगः कृतादिभिः । योग्यो न मृत्युपर्यंत, जिनवेधतात्मनाम् ।।६।।
अर्थ- इसलिये जिनलिंग धारण करनेवाले मुनियों को अपने जीवन पर्यंत मन-वचन-काय और कृत, कारिस, अनुमोदनासे दोनों प्रकारके त्रस जीवों का समारंभ कभी नहीं करना चाहिये ।।५।। म मन्यतेगिनोऽवतान, यस्त्रसत्वगतान् बहन् । लिंगस्थोऽपि स पापात्मा, भ्रमेद घोरां भवायोम् ।।
अर्थ-जो मुनि अस पर्याय को प्राप्त हुए अनेक प्रकार के जीवों को नहीं मानता है। वह पापी, जिन लिग धारण करता हुआ भी संसाररूपी घोर वन में परिभ्रमरण करता है ॥६६॥ बिचित्येति प्रयत्नेन, दयात्रसांगिनां सदा । अनुष्ठेया न बाधा, चात्राप्रमोस्तपोधनः ।।६।।
अर्थ-इसप्रकार प्रमाद का त्याग करनेवाले मुनियों को प्रयत्न पूर्वक त्रस जीवों को दया पालना चाहिये तथा उनकी बाधा कभी नहीं करना चाहिये ।।१७।। त्रिशुचयनिशं योऽश्र, रक्षां कुत्थिडगिनाम् । अप्रमत्तो भवेस्, नस्याच सम्पूर्णमहावसम् ।।
___ अर्थ-यही समझकर जो मुनि अप्रमत्त होकर तथा मन, वचन, कायकी शुद्धता पूर्वक छहों प्रकार के जीवों की रक्षाके लिये पूर्ण प्रयत्न करता है उसके पहला अहिंसा महावत पलला है ।।
महाव्रती की शोभासर्वजीयकृपाकांत, मना योऽहिल देहिनाम् । यस्नाचारी सुरक्षाम, महावतोस नापरः ॥६॥
अर्थ-जो मुनि अपने मन में समस्त जोधों की दया धारण कर, समस्त जोड़ों की रक्षाके लिये पूर्ण प्रयत्न करता है। उसे ही महावती समझना चाहिये। उसके